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पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४३९
शुभ-अशुभ बंध एवं विपाक : अध्यवसाय पर निर्भर यह निश्चित है कि पुण्यबन्ध में इन (पूर्वोक्त) और आगे कहे जाने पुण्यबन्ध के प्रकारों (स्थानों) के पीछे शुभयोग एवं प्रशस्तभाव (परिणाम) होना अत्यावश्यक है। जिन कर्मों का बन्ध होता है, उनको लेकर विपाक (फल) केवल शुभ या अशुभ नहीं होता, अपितु अध्यवसाय-रूप कारण की शुभाशुभता के निमित्त से वे शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। शुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक शुभ (इष्ट) होता है, और अशुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक अशुभ (अनिष्ट) होता है। जिस परिणाम में संक्लेश जितना कम होगा, वह परिणाम उतना ही अधिक शुभ होगा और जिस परिणाम में संक्लेश जितना अधिक होगा, वह परिणाम उतना ही अधिक अशुभ होगा। इसलिए जिस परिणाम से पुण्य-प्रकृतियों में शुभ अनुभाग बंधता है, उसी परिणाम से पाप प्रकृतियों में अशुभ अनुभाग भी बंधता है।'
. पुण्यबन्ध के नौ प्रमुख कारणात्मक प्रकार यही कारण है कि स्थानांग में नौ प्रकार से पुण्य-प्रकृतियों का आनव या बंध होना बताया है-(१) अन्नपुण्य, (२) पानपुण्य, (३) लयनपुण्य, (४) शयनपुण्य, (५) वस्त्रपुण्य, (६) मनपुण्य, (७) वर्चनपुण्य, (८) कायपुण्य और (९) नमस्कारपुण्य। (१) अन्न-पुण्य-शुभभाव से, निःस्वार्थभावना पूर्वक भूखे को भोजनादि देकर
उसकी भूख मिटाना। (२) पान-पुण्य-प्यासे को शुभभाव से पेयजल पिलाकर उसकी पिपासा शान्त . करना। (३) लयन-पुण्य-बेघरबार एवं निराश्रित को आश्रय के लिए मकानादि देना या
सार्वजनिक धर्मशाला आदि खोलना; निःशुल्क छात्रावास चलाना। (४) शयन-पुण्य-शय्या, बिछौना, चटाई, खाट, पट्टा आदि शयनीय सामग्री देना। (५) वस्त्र-पुण्य-सर्दी, गर्मी, वर्षा से पीड़ित व्यक्ति को इनसे रक्षा के लिए वस्त्र
- देना। (६) मन-पुण्य-मन से अपने और दूसरों के लिए शुभ, मंगल भावना करना। (७) वचन-पुण्य-प्रशस्त, शुभ आश्वासनदायक, सहानुभूतिदर्शक, सुखशान्ति
प्रदायक, हित मित, पथ्य, तथ्य से युक्त वचन बोलना, अच्छी सलाह देना। (८) काय-पुण्य-रोगी, पीड़ित, दुःखित एवं संतप्त व्यक्तियों की काया से सेवा
करना, उनके आँसू पोंछना, सार्वजनिक सेवाकार्य में भाग लेना, श्रमदान करना।
१. तत्त्वार्यसूत्र विवेचन (पं. सुखलालजी) से पृ. २०४
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