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=घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध =
द्रव्य विकार की निमित्तभूता प्रकृति अघाती कर्म
प्रत्येक संसारी जीव के जीवन के दो रूप होते हैं-एक द्रव्यात्मक और दूसरा भावात्मक। इस अपेक्षा से उसके विकार (आत्मदृष्टि से विभावात्मक या परभावात्मक विकार-स्वरूप विकृति) भी दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यविकार या प्रदेश-विकार तथा भावविकार। बाह्य संयोग द्रव्यरूप ही होता है, भावरूप नहीं। प्रदेश-विकार का, अथवा बाह्य संयोग-वियोग का तात्त्विक सम्बन्ध-स्व-स्वरूपत्याग का सम्बन्ध आत्मा के स्व-भावों के साथ नहीं होता, अर्थात्-उन द्रव्यविकारों या प्रदेश-विकारों से आत्मा के मूल भावात्मक स्वरूप में कोई क्षति या घात होना सम्भव नहीं है। जैसे कि जीव का आकार छोटा हो या बड़ा, शरीर कृश हो या पुष्ट, काला हो या गोरा, धनवान् हो या निर्धन, बंगले या कार वाला हो, अथवा झोंपड़ी और पैदल चलने वाला हो, स्त्रीशरीर हो पुरुष शरीर, शरीर बौना या अंग-विकल हो, अथवा लम्बा, तगड़ा और पूर्णाग हो, यदि मोह नहीं है, तो राग-द्वेषात्मक भावविकार सम्भव नहीं; और न ही ज्ञान की हानि-वृद्धि सम्भव है। ऐसी केवल द्रव्य-विकार की निमित्तभूता कर्म प्रकृति को अघाती कर्म कहा जाता है। इसे अघात्या, या अघातिया कर्मप्रकृति भी कहते हैं। घातीकर्म प्रकृति : भाव विकार की निमित्तभूता __इसके विरीत घातीकर्म उसे कहते हैं, जो कर्म आत्मा से बंध कर उसके स्वरूप का घात करते हैं, अर्थात्-उसके स्वरूप को, स्व-भाव को, स्व-गुणों के प्रकट होने में बाधक बनते हैं, उन्हें क्षति पहुँचाते हैं। उन पर आवारक बनकर छा जाते हैं, जिससे आत्मा अपनी शक्तियों को प्रकट नहीं कर पाता। 'धवला' में घाती कर्मप्रकृति का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-'जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र और वीर्यरूप अनेक भेदभिन्न जीवगुण हैं, उनके उक्त (घाती) कर्म विरोधी यानी घातक
१. कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से, पृ. ५६-५७
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