Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 467
________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४१९ पक्ष, प्रान्त, राष्ट्र या संस्कृति वालों से झगड़ा, कलह, वैर-विरोध, युद्ध, संघर्ष, हत्या, दंगा, मार-पीट, उपद्रव आदि होते आए दिन आप देखते हैं। अपने और अपनों के प्रति आसक्ति, मोह के कारण मनुष्य उनके लिए रक्तपात, द्वेष, युद्ध, संघर्ष और हिंसादि करता है, क्योंकि उसे दूसरे सम्प्रदाय, पक्ष, जाति, प्रान्त, राष्ट्र वाले के प्रति अवश्यमेव द्वेष, घृणा, वैरविरोध और विद्रोह होता है । अन्य पापस्थानकों से पापकर्म का बन्ध इस प्रकार वह मोहवश ये क्रूर कर्मबन्ध करता रहता है। इसी कारण कलह होता है, अभ्याख्यान होता है; दूसरों पर मिथ्या कलंक, दोषारोपण होता है, दूसरों की निन्दा, चुगली एवं परिवाद भी इसी कारण होता है। ऐसा व्यक्ति फिर कषायों और विषयों में अहर्निश रत रहता ( रति- रमण करता) है; वह संयम, तप, त्याग, - प्रत्याख्यान के प्रति अरुचि ( अरति), घृणा करता है, इन के प्रति अश्रद्धा करके झूठे कुतर्क प्रस्तुत करता है; तथा सच्चे वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु, और सद्धर्म की निन्दा करता है, अश्रद्धा पैदा करता है। अथवा वह धर्म की, धर्मप्रभावना की ओट में दम्भ, दिखावा, छल-प्रपंच, आडम्बर निरर्थक क्रियाकाण्ड आदि करके अपने सम्प्रदायादि को ऊँचा, महान् बताने का उपक्रम करता है, कपटसहित झूठ (मायामृषवाद) बोलता है, आत्मवंचना एवं परवंचना करता है। अथवा मूढ़ता, मोह एवं विपरीत दृष्टि के कारण मिथ्यात्व को अपनाता है, उसी का पोषण करता है, उसकी वृद्धि के लिए जनता की भीड़ इकट्ठी कर लेता है। इस प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के १८ ही विभावों को पापस्थान अर्थात् - पापकर्मबन्ध के प्रबल कारण बताए हैं। अनुभवी, आत्मार्थी एवं सम्यग्दृष्टि इन्हें धर्म या पुण्य न कहकर पाप ही कहेगा। २ पापकर्मबन्ध : दुःखफलदायक एवं प्रत्यक्षवत् पापकर्म के बन्ध के विषय में कई स्थूलदृष्टि वाले लोग कुछ भी विचार नहीं करते, वे इन पाप बन्ध के स्थानों (कारणों) की उपेक्षा करते हैं, परन्तु जब अकस्मात् ही कोई संकट, दुःख, पीड़ा, संताप, अंगविकलता, आधि, व्याधि, उपाधि, तनाव, आतंक या उपद्रव आ पड़ता है, तब भगवान् को, देवी-देवों को या निमित्तों को, काल या युग. को कोसने लगते हैं। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि उसके पीछे कौन-से पापकर्म का बन्ध इससे पूर्व काल या पूर्व-जन्म या जन्मों में हुआ है, जिस पाप कर्म-बन्ध के उदय में आने से यह दुःख या संकट भोगना पड़ रहा है। भगवान् महावीर ने स्पष्टरूप से कहा है- " यह सब प्रकार का दुःख नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य में तभी होता है - जब १. जीवा दोहिं ठाणेहिं पावकम्मं बंधइ, रागेण चेव दोसेण चेव । २. (क) देखें, १८ पापस्थानक का वर्णन आवश्यकसूत्र, निर्युक्ति आदि में (ख) असुहभावजुत्ता पावं खलु हवइ जीवा । (ग) पापं हिंसादिक्रियासाध्यं अशुभ कर्म । (घ) पाशयति मलिनयति आत्मानमिति पापम् । Jain Education International - स्थानांग सूत्र स्था. २ - द्रव्यसंग्रह पृ. ३८ -स्याद्वादमंजरी २७ गा., ३०२ पृ. -विशेषावश्यकभाष्य For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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