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पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४३३ अदत्तादान, (४) मैथुन (अब्रह्मचर्य), (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाद (परनिन्दा), (१६) रति-अरति, (१७) माया मृषावाद, और (१८) मिथ्यादर्शन-शल्या
इन अठारह पापस्थानों से तथा इनके विविध प्रकारों से पाप कर्म का बन्ध होता है। संसारी जीव मुख्यतया अठारह प्रकार से जो पापकर्म बाँधता है, उसका फलभोग ६२ प्रकार से भोगता है। इनमें ४५ घाति कर्मप्रकृतियाँ तो बंधयोग्य पाप प्रकृतियाँ है ही। जैसे-ज्ञानावरणीय की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, अन्तराय की पांच और मोहनीय की २६ (सम्यक्त्व-मोहनीय, मिश्र-मोहनीय को छोड़कर), यों घातिकर्म की ४५ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ पापकर्म प्रकृतियाँ हैं। शेष अघातिकर्म में से पुण्य की ४२ प्रकृतियों के सिवाय शेष ३७ प्रकृतियाँ अशुभ हैं, जो पापरूप हैं। वे इस प्रकार हैंपहले संस्थान और संहनन को छोड़ कर शेष पांच संहनन, पांच संस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, असातावेदनीय, नीचगोत्र, उपघात, एकेन्द्रिय जाति, तीन विकलेन्द्रिय, नरकायु, स्थावरदशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति), वर्णचतुष्क (अशुभ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श); यों अघाति कर्म की ३७ प्रकृतियाँ तथा घातिकर्म की ४५ प्रकृतियाँ यों कुल मिलाकर ६२ पापकर्म की प्रकृतियाँ हैं, जो बंधती हैं, और उसका फल पापकर्मबन्धकर्ता जीव को ८२ प्रकार से भोगना पड़ता है।
शास्त्रकारों ने विविध अपेक्षाओं से यह भी बताया है कि पापकर्म बन्ध किसकिस ने किया है, कौन-कौन बांधता है और कौन-कौन बांधेगा? समस्त संसारी जीव १. (क) अशुभः पापस्य ।
(ख) समवायांगसूत्र १८वां समवाय (ग) स्थानांगसूत्र में ९+९ आयतन, स्था. ९ (घ) सव्वं पाणाइवाय, अलिगमदत्तं च मेहुणं सव्व,
सव्व-परिग्गह तह राइभत्तं (रई-अरई) च वोसिरिमो ॥६५॥ - - सव्व कोह माणं माय लोहं च रागदोसे य ।
कलह अब्भक्खाणं पेसुत्रं पर-परीवाय ॥६६॥ मायामोस, मिच्छादसण-सल्ल तहेव वोसिरिमो ।
अंतिम-ऊसासम्मी देहपि जिणाइ-पच्चक्ख ॥६७॥ __-प्रवचनसारोद्धार २३७ द्वार २. (क) पंचसंग्रह (प्रा.) ४५६ से ४५९
(ख) गोम्मटसार (क) ४४-४५ (ग) . अपढम-संठाण-खगइ-संघयणा,
तिरियदुग-असाय-नी-उवघाय-इगविगल निरय-तिगं ॥१६॥ थावर-दस वन-चउक्क-घाइ-पणयाल-सहिय वासीई। पाव-पयडित्ति दोसुविवत्राइगहा सुहा असुहा ||१७|| -कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. १६, १७
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