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४३२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
आचारांगसूत्र. में बताया है कि कई मोहमूढ़ मनुष्य अपने पूर्वबद्ध पापकर्मों को भोगने के लिए उनके शरीर में कुष्टरोग, जलोदर रोग, या मूत्रकृच्छ आदि एक-दो रोग नहीं, एक साथ निम्नोक्त सोलह रोग तक उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे-(१) गंडमाला, . (२) कोढ़ (३) राजयक्ष्मा (टी.बी), (४) अपस्मार (मृगी, हिस्टीरिया), (५) कानापन, (६) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (७) कुणित्व (टूटापन), (८) कुब्जता (कुबड़ापन), (९) जलोदर, उदरशूल आदि उदर रोग, (१०) मूकता (गूंगापन), (११) शोथ रोग (सूजन), (१२) भस्मक रोग, (१३) कम्पवात, (१४) पीठसर्पिता (पंगुता), (१५) श्लीपद रोग (हाथीपगा) और (१६) मधुमेह (डायबिटीज)। इसके पश्चात् शूल आदि मारणान्तक आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित (अचानक) दुःखों (पीड़ा, कष्टं आदि) का स्पर्श होता है।'
इन और ऐसे ही नाना प्रकार के दःखों, कष्टों, रोगों, विपत्तियों और अनिष्टों को देखकर मनुष्य अनुमान कर सकता है, कि ये सब किसी न किसी पूर्वकृत पापकर्म के ही फल हैं। इसके अतिरिक्त सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा अनुभव किये हुए होने से पापकर्म बन्ध प्रत्यक्षवत् भी हैं। अष्टादश पापस्थानक : अठारह प्रकार से पापकों के बन्ध के कारण
पहले हम बता चुके हैं कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच आम्नव (कर्मों के आगमन के कारण) हैं, और उत्तरक्षण में ये ही पांच बन्ध के कारण बनते हैं। मूल में योग और कषाय ये दो ही उत्तरोत्तर बन्ध के कारण हैं। योग के दो प्रकार हैं-शुभयोग और अशुभयोग। पापकर्म का बन्ध अशुभ योग (मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्तियों) से होता है। पापकर्म की प्रकृतियाँ यों तो अगणित हो सकती हैं। परन्तु पहले हमने जितने भी दुःख, कष्ट, वेदना, पीड़ा, आर्ति, व्याधि, आधि, आतंक, भीति, अशान्ति आदि के कारणभूत पापकर्मबन्ध का निरूपणं किया है; उन सब को शास्त्रकारों ने १८ पाप-स्थानों में समाविष्ट कर दिया है। वे १८ पाप-स्थानक यानी पापकर्मबन्ध के कारण हैं, यथा-(१) प्राणातिपातं, (२) मृषावाद, (३) १. (क) शुभाशुभ कर्मफल (मुनि त्रिलोक) से पृ. ३३, ३२, ३४ (ख) अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया
गंडी अदुवा कोढी रायसी अवमारियं । काणिय झिमियं चेव कुणितं खुज्जितं तहा ॥१३॥ उदरिं च पास मुई च सूणियं च गिलासिणि । वेवई पीढसप्पिं च सिलिवयं मधुमेहणिं ॥१४॥ सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुव्वसो । अह णं फुसति आतंका, फासा य असमंजसा ॥१५॥
"अट्टे से बहुदुक्खे इतिबाले पंकुव्वति । एति रोगे बहू णच्चा आतुरा परितावए ॥ -आचारांग १ श्रु. अ. ६, उ. १, सू. १७९
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