Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 484
________________ ४३६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) होना चाहिए; क्योंकि विद्वान् को तत्त्वज्ञान और सन्तोष आदि से सुख होता है और वीतरागी त्रिकाल रत्नत्रयादि के अनुष्ठान से स्वयं को दुःख पहुँचाता है। ऐसी स्थिति में पुण्य और पाप का चक्र सदा चलता रहेगा और किसी भी जीव को मुक्ति ही नहीं होगी, क्योंकि पुण्यकर्म और पापकर्म दोनों से कभी छुटकारा ही नहीं होगा। आचार्य समन्तभद्र ने इसका समाधान देते हुए कहा है- 'अपने में स्थित सुख-दुख या पर में स्थित सुख-दुःख यदि विशुद्धि का कारण है, विशुद्धि कार्य और विशुद्धि स्वभाव है तो पुण्यानव (पुण्यबन्ध) होता है, और यदि संक्लेश का कारण, संक्लेश का कार्य और संक्लेश- स्वभावरूप है तो वहाँ पापानव ( पापबन्ध) होता है। आर्त्त- रौद्र-ध्यानरूप परिणाम संक्लेश कहलाता है और धर्म- शुक्लध्यान विशुद्धि । ' 9 श्रवणेन्द्रिय, नेत्रेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय की प्रबलता का लाभ - पुण्यबन्ध से कोई व्यक्ति धर्मशास्त्र (अध्यात्मलक्ष्यी) और सुकथा श्रवण करता है, गुणिजनों के गुणों को सुनकर प्रसन्न होता है, दीन-दु:खियों की पुकार पर ध्यान देकर उन्हें सन्तुष्ट एवं आश्वस्त करता है, बहरे व्यक्तियों की हंसी न उड़ा कर उनके प्रति सहानुभूति दिखाता है, यथाशक्ति सहायता करता है, इत्यादि कारणों से शास्त्रानुसार अचक्षुदर्शनावरणीय के क्षयोपशम से तथा शुभ अंगोपांग नामकर्म नामक पुण्य का बन्ध होने से वह श्रोत्रेन्द्रिय (कान) की तीव्रश्रवणता, स्वस्थता एवं सुन्दरता प्राप्त करता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति त्यागी तपस्वी साधु-साध्वियों के दर्शन करता है, धर्म के प्रति अनुराग रखता है; विषयासक्तिवर्द्धक रूप देख तुरन्त दृष्टि हटा लेता है, नेत्रहीन या नेत्ररोग ग्रस्त व्यक्तियों पर दया करता है; सत्-शास्त्र तथा श्रेष्ठ साहित्य, आध्यात्मिक ग्रन्थ पढ़ता है, ऐसा व्यक्ति चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा शुभ अंगोपांग नामकर्म के पुण्यबन्ध और उसके फलस्वरूप उसे स्वस्थ, तेज, मनोहर और दूरदृष्टि वाली आँखें प्राप्त होती हैं। एक व्यक्ति मांस, मदिरा, रक्त तथा अन्य अभक्ष्य अनिष्ट उत्तेजक खान-पान नहीं करता, रसलोलुपता नहीं करता, सद्बोध करता है, लोगों को सद्धर्म का तत्त्व समझाता है, सदैव गुणों का ही बखान करता है, हित-मित प्रिय-सुखदायक वचन बोलता है, जिह्वाधिकल, तोतला, मूक और अस्पष्टभाषी व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखता है, उसकी सहायता करता है, शास्त्रवचनानुसार ऐसे व्यक्ति शुभनामकर्म पुण्य का बन्ध करके जिह्वेन्द्रिय की प्रबलता, वचन की आदेयता प्राप्त करते हैं। २ १. आप्तमीमांसा (आचार्य समन्तभद्र) से २. (क) मणुण्णा सद्दा, मणुण्णा रूवा, मणुण्णा रसा, मणोसुहया, वइसुहया, कायसुहया । (ख) इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा, इट्ठा रसा, इट्ठा लावण्णा । (ग) अदुक्खणयाए, अपरियावणयाए, अणुकंपाए । (घ) मैत्रीभाव, सहायता प्रदान, विनय, भक्ति, एकाग्रता एवं अनुकम्पाभाव से Jain Education International - प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१२ - वही, २३/१/१५ -भगवतीसूत्र ७/६/९ For Personal & Private Use Only - भगवती सूत्र ८/९/३७-३८ www.jainelibrary.org

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