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पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४२९
इन पापकर्मों के बन्ध के कारण मानव अपमानित होता है
बहुत-से लोग पद-पद पर अपमानित, तिरस्कृत होते देखे जाते हैं, वह भी पूर्वबद्ध पापकर्म के कारण होते हैं। वे पापकर्म ये हैं- दूसरों का मान खण्डित करने के लिए नीच उपाय तक करना, शत्रुओं का अपमान सुनकर खुश होगा, अपनी प्रशंसा स्वयं करना और खुश होना, अपने सद्गुणों का अहंकार (गर्व) करना; निर्धन, मन्दबुद्धि एवं दीन-हीन लोगों का निरादर करना, माता-पिता, गुरु एवं वृद्धों व सज्जन व्यक्तियों का अविनय करना, गुणिजनों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या एवं असूया करना; गुणी चारित्रात्माओं की वन्दना-भक्ति स्वयं न करना और दूसरों को करने से रोकना, मर्यादाओं का भंग करना आदि।
निर्बल किस पापबन्ध के कारण के होता है ? इसी प्रकार निर्बल होना भी निम्नोक्त पापकर्मबन्ध कारण है - दीन-हीनों को सताना, निर्बलों को दबाना, उनके साथ कलह करना, उन्हें बन्धन में डालना, किसी की अन्न-वस्त्रादि की प्राप्ति में विघ्न डालना, और अपने बल का अहंकार (मद ) करना आदि।
कायर और डरपोक किन पापकर्मों के कारण होता है ?
बहुत-से लोग कायर, डरपोक और बात-बात में शंकाशील होते हैं, ऐसा होने में पापकर्मबन्ध ही कारण है। जो अन्य जीवों में भय पैदा करता है, अकस्मात् धमाका करके दूसरों को डराता-धमकाता है, दूसरों की इज्जत लूटता है; चोर, सर्प, विष, अग्नि, पानी, भूत, यक्ष आदि भयानक नामों का उच्चारण करके दूसरों को भयभीत करता है; शिशुओं और पशुओं को डरपोक बनाता है, उन्हें चौंकाता है, उन्हें भयभीत होकर दबते देख प्रसन्न होता है, वह व्यक्ति भयमोहनीय पापकर्मबन्ध करके भविष्य में कायर और डरपोक बनता है।
पराधीन होना भी पापकर्मबन्ध कारण है
इसी प्रकार जो मनुष्य द्वेष और ईर्ष्या आदि के वश दूसरों को बन्दीगृह में डलवाता है, अत्यधिक परिश्रम करवाकर अत्यल्प पारिश्रमिक देता है, कर्जदार के घर का सारा माल अपने कब्जे में लेकर उसे दर-दर का मोहताज बना देता है, दूसरे की इज्जत को धक्का पहुँचाता है, बलात् बेगार में काम करवाता है; कुटुम्बियों और नौकरों भोजन - पानी में अन्तराय डालता है, पशु-पक्षियों को बाड़ों और पिंजरों में बंद करके रखता हैं, दूसरों को पराधीन और बंदी देखकर प्रसन्न होता है, दूसरों की स्वाधीनता नष्ट करता है, वह व्यक्ति उस पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप स्वयं पराधीन होता है।
9. (क) इस्सरिय-मदेणं
(ख) इस्सरिया - विहीणया ।
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- भगवतीसूत्र ८/९/४३
- प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१६
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