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४२८ · कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) उपहास करने से, चोरी, जारी, गुंडागीरी आदि कुकृत्यों में प्रवृत्त होने से पापकर्मबन्ध होता है, उसके फलस्वरूप व्यक्ति पंगु व पैर से रहित होता है। ___ कई लोग बहुत परिश्रम करने पर भी दीन-हीन, अभाव-पीड़ित तथा दरिद्र बने रहते हैं, मन में आर्तध्यान एवं दूसरों से ईर्ष्या करते रहते हैं, उसके पीछे भी निम्नोक्त पापकर्म-बन्ध कारण हैं-चोरी, ठगी, धोखाधड़ी, धूर्तता, दगा, अन्याय, अत्याचार से तथा हिंसाकारी व्यवसायों से, तस्करी से धनोपार्जन करने से, धनवानों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या और वैरभाव रखने से, किसी के द्वारा स्व-श्रम से उपार्जित धन को लूट लेने या हड़प लेने से, दूसरों को घर से निकाल कर या उजाड़ कर तथा अन्न वस्त्र आदि छीन कर पीड़ित करने से, निर्धनों को कठोर शब्द या अपशब्द बोलने से, उन पर दवाब डालकर अपने जाल में फंसाने से, किसी की आजीविका भंग करने से, दूसरों की कमाई में विघ्न डालने से, किसी की धरोहर को दबाकर उसे निर्धन एवं कंगाल बना देने से, किसी का धन अग्नि में जला देने या जल में डुबा देने आदि पापकर्मों के बंध के फलस्वरूप मानव दीन-हीन-दरिद्र बनता है।२ ___ यदि कोई क्रूर स्वभाव वाला है तो उसके पीछे भी शास्त्रकारों ने पापकर्मबन्ध को कारण बताया है कि तीव्र क्रोध करने से, तीव्र मान करने से तथा तीव्र लोभ करने से, बात-बात में संतप्त हो (तप्त) जाने से, सत्संग से दूर रहने और कुसंगति में खुश रहने से, तथा नरकगति से सीधा आकर जन्म लेने से मानव क्रूरस्वभावी बन जाता
१. (क) घाणावरणे, घाण-विण्णाणावरणे ।
(ख) अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा लावणं । (ग) अमणुण्णा गंधा, मणोदुहया, वइदुहया, कायदुहया । -प्रज्ञापना, २३/१/१०, १२, १५ (घ) अमणुण्णा फासा, मणोदुहया, वइदुहया, काय-दुहया ।, (ङ) अचक्खुदसणयाए। (च) अणिवाफासा, अणिट्ठा लावण्णं ।
-प्रज्ञापना २५/१/१२, ११,१०, १५ (छ) बहूर्ण पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, पिट्टणयाए, परितावणयाए ।
-भगवती ८/९ (ज) परपील्ला-कारगं च हास ।
-प्रश्नव्याकरणसूत्र २/२/२५ (झ) बलमदेणं । (अ) काल-अणुज्जयाए ।
--भगवती ८/९/४२ (ट) अणिट्ठा लावण्ण अणिढे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसकार-परकमे । -प्रज्ञापना २३/१/१५ २. (क) लाभन्तराएणं, लाभमदेणं।
-भगवती ८/९/४४, ४३ (ख) परिवूढे परंदमे ।
-उत्तराध्ययन ७/६ गा. ३. (क) तिव्वकोहाए, तिव्व-माणाए, तिव्वलोहाए। -भगवती. श. ८/उ. ९/सू. ४० (ख) अट्टझाणाए । संगो एस मणुस्साणं।
-उत्तराध्ययन (ग) कसाय-वेयणिज्जे ।
-प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१३
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