Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 471
________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४२३ बड़े पाप से तीव्रतर पापकर्म का बन्ध होता है। जिसका कटुफल भविष्य में भोगना पड़ती है। अतः यह निश्चित है कि जिसका फल भोगते समय अत्यन्त दुःख, पीड़ा, सन्ताप, घनीभूत चिन्ता, तनाव आदि हो जाते हैं, समझ लो, यह मेरे द्वारा पहले किये हुए किसी पाप कर्म-बन्ध का फल है। वह कृत- पापकर्म अब उदय में आया है। उसका फल भोगे बिना अब कोई भी छुटकारा नहीं है। पापकर्मबन्ध के मुख्य कारण हिंसा, ममत्वयुक्त परिग्रह आदि सूत्रकृतांग सूत्र में विभिन्न पापकर्मों से होने वाले बन्ध और उनसे प्राप्त होने वाले विभिन्न दुःखों का निरूपण करते हुए कहा गया है - ' जो सचेतन ( माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पत्नी आदि सजीव) और अचेतन ( मकान, दुकान, वाहन, धन, तथा अन्य भोगोपभोग के साधन आदि निर्जीव) पदार्थों के प्रति थोड़ा-सा भी परिग्रह (ममत्व, मूर्च्छा, आसक्ति एवं तृष्णा आदि पूर्वक संग्रह) करता है, तथा अन्य व्यक्तियों को परिग्रहबुद्धि से उक्त पदार्थ रखने को कहता है, उपदेश देता है, परिग्रही के द्वारा परिग्रह रखे जाने का अनुमोदन समर्थन करता है। बहु-परिग्रह या महापरिग्रह के कारण उनकी धर्मात्मा, धर्मवीर, पुण्यवान् आदि शब्दों से प्रशंसा करता है। अथवा अन्याय, अत्याचार, अधर्म, अनीति, शोषण, ठगी, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती, तस्करी आदि अनैतिक उपायों से धन का अत्यधिक संग्रह करने वाले व्यक्ति को प्रतिष्ठा देता-दिलाता है। अर्थात्-परिग्रह- बुद्धि से अनर्थ-मूलक परिग्रह रखता - रखाता है, रखने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है; वह कर्मबन्धन करता है, जिसके फलस्वरूप आठ प्रकार के दुःखरूप कर्म और उसके असातावेदनीयादि दुःखरूप फल से - दुःखात्मक बन्धन से छूट नहीं सकता।' इसी प्रकार "जो व्यक्ति (परिग्रह, तस्करी, चोरी-डकैती, धरोहर-हरण आदि के लिए ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अंहकारादिवश) स्वयं मन-वचन-काया से प्राणियों के प्राणों का नाश करता है, अथवा दूसरों से प्राणियों का वध कराता है, या जो प्राणियों के दशविध प्राणों में से किसी भी प्राण का वध या घात करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन - समर्थन करता है, उपलक्षण से मृषावाद आदि (असत्य, चोरी, ठगी, जमाखोरी, तस्करी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि) पापों का भी त्रिकरण त्रियोग से दुष्कृत्य करता - कराता है), वह अपनी आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाली वैर-परम्परा बढ़ाता है। और उस दुःख - परम्परारूप बन्धन से तथा उसके जन्म-मरणादिरूप दुःख से छुटकारा नहीं पाता । " इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति जिस कुल में, अथवा (जिस परिवार, कुटुम्ब, जाति, सम्प्रदाय, नगर-ग्राम, प्रान्त, राष्ट्र आदि के) जिन लोगों के साथ रहता है, या जिनसे रात-दिन वास्ता पड़ता है, उनके प्रति ममत्व, आसक्ति एवं मोहादि वश वह अज्ञ (सद्-असद् - विवेकविकल) व्यक्ति उक्त ममत्वादि जनित कर्मबन्ध के फलस्वरूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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