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उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३९९ दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्नरूप इस कर्म का अनुभाव (फलभोग) स्वतः भी होता है, परतः भी। एक या अनेक पुद्गलों का सम्बन्ध पाकर जीव अन्तराय कर्म के पूर्वोक्त अनुभाव (फलभोग) का अनुभव (परतः) करता है। विशिष्ट रत्नादि के सम्बन्ध से तद्विषयक मूर्छा हो जाने से तद्विषयक दानान्तराय कर्म का बन्ध और तत्पश्चात् उदय होता है। रलादि की सन्धि को छेदने वाले उपकरणों के सम्बन्ध से लाभान्तरायकर्म का उदय होता है। विशिष्ट आहार अथवा बहुमूल्य वस्तु का सम्बन्ध होने पर लोभवश उनका भोग (सेवन) नहीं किया जाता। इस तरह वह बहुमूल्य वस्तु भोगान्तराय कर्म के उदय में कारण बनती है। इसी तरह उपभोगान्तराय कर्म के उदय की कथा है। लाठी आदि की चोट से मूर्छित हो जाना, निढाल होकर गिर पड़ना वीर्यान्तराय कर्म का अनुभाव है। आहार, औषधि आदि के परिणामस्वरूप भी कभी वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है। मंत्र संस्कारित गन्ध-पुद्गल-परिणाम से भोगान्तरायकर्म का उदय हो जाता है। स्वाभाविक पुद्गल-परिणाम भी अन्तराय कर्म के अनुभावों में निमित्त बन जाता है। जैसे-ठंड पड़ती देखकर सर्दी में ठिठुरते हुए व्यक्तियों को गर्म वस्त्र दान देने की भावना होने पर भी व्यक्ति वस्त्रादि का दान नहीं दे पाता, यह सोच कर कि ठंड अधिक पड़ने लगेगी तो ये वस्त्र मेरे काम आएँगे, वह व्यक्ति दानान्तराय कर्म का अनुभाव करता है। यह परतः अनुभाव है। अन्तरायकर्म के उदय से दान, भोग, उपभोगादि में अन्तरायरूप फल का जो भोग (अनुभाव) होता है, वह स्वतः अनुभाव होता है।'
उपसंहार - इस प्रकार आठों ही मूल कार्यों की उत्तरप्रकृतियों के स्वरूप, उपमा, स्वभाव, उनके पृथक्-पृथक् रूप से बन्ध होने के कारण और उनके फल, अनुभाव (फलभोग) आदि का संक्षेप में दिग्दर्शन किया गया है। यों तो उत्तरप्रकृतियों के भी तीव्र, मन्द आदि के भेद से अनेक प्रकार होने के कारण, उनके बन्ध के भी कारणों में असंख्य तारतम्य हो सकते हैं। हम इतनी गहराई में अपने पाठकों को नहीं ले जाना चाहते; किन्तु प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में जो-जो कर्मविज्ञान के मुख्य-मुख्य मुद्दे हैं, उन पर विशद प्रकाश डाला गया है।
. (क) जैन दृष्टिए कर्म, पृ. १६८
(ख) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३६८-३६९ . (ग) प्रज्ञापना २३/२
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