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४१२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कषाय-पाहुड में प्रश्न उठाया गया है कि सम्यक्त्व-मोहनीय प्रकृति से सम्यक्त्व के कौन-कौन से भाग का घात होता है? उत्तर इस प्रकार है कि सम्यक्त्व की स्थिरता और निष्कांक्षता का उससे घात होता है। अर्थात-उसके द्वारा घात होने से सम्यक्त्व का मूल से विनाश तो नहीं होता, किन्तु उसमें चल, मल, अगाढ़ आदि दोष आ जाते
हैं।
प्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्क सर्वघाती कैसे ?
अब प्रश्न होता है कि प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क सर्वघाती कैसे है? यदि ऐसा माना जाए कि प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क के उदय में सर्व प्रकार से चारित्र-विनाश करने की शक्ति का अभाव है, तो क्या प्रत्याख्यानावरण कषाय का सर्वघातीपन नष्ट. नहीं हो जाता? उत्तर-नहीं होता, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्व-प्रत्याख्यान (संयम) गुण का घात करता है। इस कारण उसे सर्वघाती कहा जाता है। यह जरूर है कि वह सर्व-अप्रत्याख्यान कषायचतुष्क को नहीं घातता, क्योंकि इसका इस विषय में व्यापार नहीं है।२ अघातिकर्म का लक्षण, स्वरूप, कार्य और प्रभाव
घातिकर्म से विपरीत स्वभाव वाले कर्म अघाति कर्म कहलाते हैं। अर्थात्उदयावस्था में आने के बावजूद जिस कर्म में आत्मा के गुणों का घात-नाश करने की शक्ति नहीं होती, वही अघातिकर्म प्रकृति कहलाती है। इसका विशेष परिष्कृत स्वरूप यह है-जो कर्म आत्मा के निजीगुणों का घात न करके केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करता है, अर्थात्-आत्मा के प्रतिजीवी गुणों को प्रकट होने नहीं देता, आवरण या प्रतिरोध करता है, वह अघाती कर्म है। अघातिनी या अघातिया कर्म-प्रकृति से जीव (आत्मा) के मूल भावात्मक स्वरूप में कोई क्षति या घात होना सम्भव नहीं है। अर्थात्-अघातिकर्म-प्रकृति से रागद्वेषात्मक या कषायात्मक भाव-विकार या ज्ञानादि का हास-विकास भी सम्भव नहीं है। इसलिए अघातिकर्म-प्रकृति द्रव्यविकार की निमित्तभूता है। निष्कर्ष यह है कि अघातिकर्म आत्मा के मौलिक एवं स्वाभाविक ज्ञानादि अनुजीवी (निजी) गुणों का घात या ह्रास नहीं करते, इनकी अनुभाग शक्ति भी आत्मा की स्वभाव-दशा की उपलब्धि या आत्मगुणों के विकास में बाधक नहीं बनती।३ ये केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात या हास करते हैं।
१. कषायपाहुड़ ५/४-२२/१९१/१३० २. धवला ५/१, ७, ७/२०२ ३. (क) पंचसंग्रह (प्रा.) गा. ४८४
(ख) गोम्पटसार (क.) गा. ४० (ग) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. १४ (घ) कर्मसिद्धान्त पृ. ५७ (ङ) कर्मविज्ञान खण्ड ३ पृ. ५७६-५७७
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