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घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४१५
जीवविपाकी कर्मप्रकृतियाँ घातिया क्यों नहीं ? 'धवला में एक प्रश्न उठाया गया है कि जीवविपाकी नामकर्म एवं वेदनीय कर्मों को घातिया कर्म क्यों नहीं माना गया? इसका समाधान यह है कि उक्त कर्मप्रकृतियों का कार्य अनात्मभूत सुभग-दुर्भग आदि जीव की पर्यायें उत्पन्न करना है, न कि जीव (आत्मा) के गुणों का नाश करना। इसी प्रकार असातावेदनीय जीव के लिए सुख-दुःख उत्पन्न करने वाला होने पर भी घातिकर्म इसलिए नहीं माना कि असातावेदनीय घातिकर्मों का केवल सहायक है, विध्वंसक नहीं; वह घातिकर्मों के बिना अपना कार्य करने में भी असमर्थ है, तथा प्रवृत्ति-रहित है।'
सर्वघाती और देशघाती कर्म-प्रकृतियाँ की निकृष्ट-उत्कृष्ट शक्ति लतादितुल्य धवला और गोम्मटसार कर्मकाण्ड में घातिकर्मों में मध्यम और उत्कृष्ट दो-दो अनुभाग-शक्तियों का उपमा द्वारा निर्देश करते हुए कहा गया है-घातिकर्मों में चार प्रकार की अनुभाग शक्तियाँ हैं-(१) लतासम, (२) दारु (काष्ठ) सम, (३) अस्थि (हड्डी) सम और (४) शैल (पर्वत)-सम। इन चारों में से लता और दारु के तुल्य भाग में क्रमशः मध्यम और उत्कृष्ट देशघाती या देशावरण अनुभाग-शक्ति है। किन्तु अस्थि और शैल के तुल्य भाग में क्रमशः मध्यम और उत्कृष्ट सर्वघाती या सर्वावरण अनुभागशक्ति जाननी चाहिए।२
... घाती-अघाती कर्मप्रकृतियों में शुभाशुभ कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण घातिकर्मों और अघातिकर्मों में शुभ और अशुभ प्रकृतियाँ कितनी-कितनी और कौन-कौन-सी हैं? इसका वर्गीकरण भी तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में किया गया है। वहाँ बताया गया है कि मूलकर्मप्रकृतियों में घातिकर्म की चारों प्रकृतियाँ अशुभ हैं। जबकि अघातिकर्म की चार प्रकृतियों में शुभ और अशुभ दोनों हैं। घातिकर्म की उत्तर-प्रकृतियों में पूर्वोक्त ४५ (दिगम्बर मतानुसार ४७) ही प्रकृतियाँ अशुभ हैं, पापरूप हैं। तथा अघातिकर्मों की उत्तरप्रकृतियों में कुछ प्रकृतियाँ अशुभ हैं और कुछ शुभ हैं। सातावेदनीय, शुभायु, (मनष्यायु और देवायु), उच्च गोत्र और शुभनामकर्म की ३७, यों कुल ४२ प्रकृतियाँ शुभ हैं, जबकि शेष सभी ३७ प्रकृतियाँ अशुभ हैं। पाप रूप हैं। परन्तु तत्त्वार्थसूत्र में घातिकर्मों की चार उत्तर-प्रकृतियों को अशुभ के बदले शुभ बताया गया है-(१) सम्यक्त्व मोहनीय, (२) हास्य, (३) रति और (४) पुरुषवेद। इन चार घातिकर्म की उत्तर प्रकृतियों को शुभ (पुण्यरूप) क्यों माना गया है? इन विषय में पं. सुखलाल जी लिखते हैं-इन चार प्रकृतियों को
१. धवला ७/२, १, १५/६३, गा. १ २. (क) धवला ७/२, १, १५/६३, गा. १४
(ख) सत्ती य लदा-दारु-अट्ठी-सेलोवमाहु घादीणं । ... अणंतिम-भागोत्ति, देसघादी तदो सव्वं ॥
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड मू. १८०/२११
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