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४१६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पुण्यरूप मानने वाला मत-विशेष बहुत प्राचीन है, ऐसा ज्ञात होता है। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य-वृत्तिकार ने उत्त मतभेद-दर्शक कुछ कारिकाएँ भी दी हैं। इस मन्तव्य के रहस्य को उन्होंने चतुर्दशपूर्वधारकगम्य बताया है। अनुमान है कि हास्य, रति और पुरुषवेद को प्रशस्तता की विवक्षा से शुभ माना हो, तथा सम्यक्त्व मोहनीय को सरागसम्यक्त्वरूप होने से (कवल चल, मल अगाढ़ आदि दोषों के कारण) शुभ माना हो। तत्त्वं केवलिगम्यम्। चारों घाती और चारों अघाती कर्मों का समूल उन्मूलन होने पर - चारों घातिकर्मों का समूल उन्मूलन होने पर व्यक्ति केवलज्ञान-केवलदर्शन-सम्पन्न, वीतराग, अरिहन्त (अर्हत) जीवन्मुक्त (सदेह-मुक्त) बन जाता है, फिर भी चार : अघातिकर्म शेष रह जाते हैं, परन्तु जली हुई रस्सी के बट की तरह वे निष्फल हो जाते हैं। केवल शरीर, आयु और योग को बनाये रखना ही उनका कार्य रह जाता है। ऐसे जीवन्मुक्त अर्हत् परमात्मा सुख-दुःख में पूर्ण समभाव में स्थित रहते हैं। नये कर्मों का बन्धन एकदम रुक जाता है, पुराने जो चार कर्म हैं, उनके शेष परमाणु भी क्रमशः क्षीण होते जाते हैं। वह सशरीर वीतराग केवली प्रभु जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं होता, तब तक विचरण करते रहते हैं। आयुष्य कर्म के अन्तिम क्षणों में मन-वचन-काय तीनों योगों का पूर्ण निरोध करके निष्कम्प शैलेशी अवस्था को प्राप्त : हो जाते हैं। फलतः चारों अघातिया कर्म वायुवेग से उड़ने वाले सूखे पत्तों की तरह नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। वे अपने स्वरूप में पूर्णतया स्थिर हो जाते हैं, आत्मगुणों में ही निरन्तर रमण करते हैं।
इस प्रकार अघाति कर्मों का भी समूल नाश होते ही वह सदेहमुक्त के बदले विदेहमुक्त (तन-मन, वचन, आदिरहित) परमात्मा बन जाता है। फिर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त (अष्टविध कर्मों से सर्वथा मुक्त), तथा जन्म, जरा, मरण, व्याधि, आधि, उपाधि आदि सर्व दुःखों से रहित हो जाता है। शरीर छूटते ही कर्मों से सर्वथा रहित होने के कारण वह मुक्त आत्मा ऊर्ध्वगमन के स्वभाववश लोक के अग्रभाग (लोकान्त) पर सिद्धिगति नामक सिद्धालय में जा विराजता हैं। संसार में आवागमन के कारणों का अभाव होने से फिर संसार में आवागमन, शरीर धारण या जन्ममरणादि नहीं करता।२
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन से पृ. ४३;
(ख) आत्म तत्त्व विचार से पृ. ३७३ (ग) सवेध-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायुर्नामगोत्राणिपुण्यम् ततोऽन्यत् पापम्।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ८ सू. २६ (घ) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलालजी) से पृ. २०५ २. (क) जैन दृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचन्द गि. कापड़िया) से पृ. १५२
(ख) कर्मविज्ञान खण्ड ३ पृ. ५७९
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