Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 462
________________ ४१४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अघातीकर्म की मूलप्रकृतियाँ और उनका कार्य अघाती कर्म-प्रकृतियाँ चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। ये चारों बाह्य पदार्थापेक्षी हैं। इनसे इष्ट-अनिष्ट भौतिक पदार्थों की उपलब्धि होती है। इनसे सांसारिक जीवन आत्मा के साथ शरीर के संयोग या सहभाव से निर्मित होता है। इनमें वेदनीय कर्म सुख-दुःखादि की उपलब्धि में निमित्त बनता है। नामकर्म शुभ-अशुभ शरीरादि-निर्माणकारी कर्मवर्गणारूप है। आयुष्य कर्म प्रकृतियाँ शुभाशुभ जीवन को बनाये रखने वाली कार्मण-वर्गणा रूप हैं, जो आत्मा को कार्मण शरीर के माध्यम से विविध योनियों-गतियों में भटकाता है।' अघाती कर्म-प्रकृतियों के बन्ध योग्य भेद ___ चारों अघाती कर्मों के कुल मिला कर १०१ भेद होते हैं। यथा-वेदनीय कर्म के दो भेद-सातावेदनीय और असातावेदनीय। आयुष्य कर्म के चार भेद-देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायु। गोत्रकर्म के दो भेद-उच्चगोत्र और नीचगोत्र। और नामकर्म के ९३ भेद, जिन्हें हम पिछले प्रकरण में गिना आए हैं। इस प्रकार २+४+२+९३=१०१ भेद अघातिकर्म प्रवृतियों के होते हैं। परन्तु इनमें से सबका. बन्ध नहीं होता। बंध होता है-केवल ७५ कर्मप्रकृतियों का। वे इस प्रकार हैं-वेदनीय की दो, आयुष्य की चार, गोत्र की दो, और शेष ६७ नामकर्म की। नामकर्म की बन्धयोग्य अघाती कर्मप्रकृतियाँ ९३ के बजाय ६७ हैं-प्रत्येक प्रकृतियाँ आठ (पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थकर, निर्माण और उपघात), पांच शरीर, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, एकेन्द्रियादि पांच जाति, नरकादि चार गति, चार आनुपूर्वी, त्रसदशक, स्थावरदशक, दो विहायोगति, वर्णादि चार, यों कुल मिला कर ७५ कर्मप्रकृतियाँ अघातिनी हैं। इनके स्वरूप का निरूपण हम पिछले प्रकरण में कर आए हैं।२ । घाति-आघाती कर्मों की मूल-उत्तर-प्रकृतियों के बन्ध के हेतु __इस प्रकार घातिकर्मों की मूल प्रकृतियाँ चार और उत्तर प्रकृतियाँ ४७ तथैव अघातिकर्मों की मूल प्रकृतियाँ चार और उत्तर प्रकृतियाँ ७५ आत्मा (आत्म-प्रदेशों) के साथ बंधती है। इन सबके बन्ध के कारणों का निर्देश पिछले प्रकरणों में हम कर आए हैं।३ १. (क) कर्मविज्ञान खण्ड ३, पृ. ५७७ (ख) जैनकर्मसिद्धान्तः तुलनात्मक अध्ययन से पृ. ७८ ।। २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. ४३ (ख) पत्तेयतणुद्धाऊ तसवीसा गोय-दुग वन्ना। __-कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. १४ (ग) देखें, इन सबके स्वरूप एवं कार्य के जानने हेतु, कर्मविज्ञान खण्ड ७ में 'उत्तरकर्मप्रकृतियों के बन्ध' शीर्षक प्रकरण में। ३. इन सबके बंध के कारणों के लिए देखें, कर्मविज्ञान खण्ड ७ में 'मूल प्रकृतियों का बन्ध : - स्वरूप, स्वभाव और कारण' तथा 'उत्तर प्रकृतियों का बन्ध' शीर्षक निबन्धों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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