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४०२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ज्ञाता-द्रष्टाभाव, तथा समता एवं शमता के कारण निराकुलता ही (आत्मिक) सुख कहलाता है। तथा चित्शक्तियों की निर्विकल्पता, अचंचलता अथवा स्थिरता ही आत्मशक्ति (वीर्य) है। पूर्वोक्त चार घाती कर्मों में से ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करके, उसके प्रकाश को घटा देता है, आत्मा के ज्ञानगुण का विकास करने में बाधक-घातक बन जाता है। दूसरे शब्दों में-ज्ञानावरण रूप घाती कर्म आत्मा की अनन्तज्ञानशक्ति का घात करता है, वह ज्ञान-गुण को प्रकट नहीं होने देता। दर्शनावरणरूप घाती कर्म आत्मा के दर्शनगुण को आवृत करके उसके द्वारा होने वाले सामान्य चित्-प्रकाश को घटा देता है। अर्थात्-वह आत्मा की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने देता। मोहनीय कर्मरूप घातीकर्म आत्मा की समता-शमतारूप निराकुलता को विकृत एवं कुण्ठित करके राग-द्वेष (कषाय) उत्पन्न कराता है, आत्मा के सम्यग्दर्शन को विकृत करके उसे मद्यपान से मत्त मनुष्य की तरह मूढ़ बना देता है। अर्थात्-मोहनीय कर्मरूप घातीकर्म आत्मा को मोहमूढ़ बनाकर उसे सच्चे मार्ग . (सत्य) का भान नहीं होने देता। इतना ही नहीं, वह उस सत्यपथ पर चलने में भी आत्मशक्ति को कुण्ठित, अवरुद्ध एवं विकृत कर देता है, जिससे आत्मा को निराकुल अव्याबाध सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती। संक्षेप में, मोहनीयकर्मरूप घातीकर्म आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप गुणों के विकास में घातक-बाधक एवं अवरोधक बनता है। अन्तराय कर्मरूप घातीकर्म आत्मा की विराट शक्तियों को प्रकटित होने में विघ्नरूप बनता है। वह आत्मा की अनन्त विराट् शक्ति आदि का विघातक है, जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति को विकसित एवं जागृत नहीं कर पाता।' घातीकर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों का सर्वथा नाश नहीं कर सकता
घातिकर्म के घाती शब्द को लेकर पाठक यह न समझें कि यह आत्मा के ज्ञानादि गुणों का सर्वथा घात-नाश कर देता है। क्योंकि घातीकर्म या कोई भी अन्य कर्म, आत्मा के गुणों को प्रभावित, कुण्ठित एवं आवृत कर सकते हैं, परन्तु पूर्णतया नष्ट करने की सामर्थ्य उनमें नहीं है। जैसे-आत्मा का मूल गुण ज्ञान है। ज्ञान और आत्मा निश्चय दृष्ट्या अभिन्न हैं। यदि आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण नष्ट हो जाएं तब तो वह आत्मा न रहकर अनात्मा (जड़-अचेतन) बन जाएगा। घातीकर्म आत्मा के ज्ञान-गुण को कितना ही आवृत कर दें, नन्दीसूत्र के अनुसार-प्रत्येक जीव में अक्षर का अनन्तवाँ भागरूप ज्ञान उद्घाटित (खुला) रहता है। काले कजरारे सघन मेघ चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा को कितना ही आच्छादित कर दें, वे उनके प्रकाश को पूर्णतया आवृत करने में समर्थ नहीं होते, समय पाकर वे घनघटा को चीर कर प्रकाशित हो ही जाते हैं। इसी प्रकार घातीकर्म आत्मा के ज्ञान-दर्शन-गुणों को अथवा आत्मिक सुख
१. (क) कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्रवर्णी) से, पृ. ५७
(ख) धर्म और दर्शन से भावांश ग्रहण, पृ. ६४
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