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घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४०७ मोहनीय कर्म की २८ उत्तरप्रकृतियाँ-दर्शन मोहनीय के तीन भेद-I. सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व-मोहनीय और मिश्र-मोहनीय, II. चारित्र-मोहनीय के २५ भेदअनन्तानुबन्धी के ४, अप्रत्याख्यानावरणीय के ४, प्रत्याख्यानावरणीय के ४ और संज्वलनकषाय के ४ भेद। नौ नोकषाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। ___ अन्तरायकर्म की ५ प्रकृतियाँ-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय।
इस प्रकार चार घातिकर्मों की कुल ४७ उत्तर प्रकृतियाँ हैं। घातिकों की उत्तर प्रकृतियाँ घातिनी कहलाती हैं, और अघातिकर्मों की अघातिनी। कर्मग्रन्थ भा. ५ में कुल घाती कर्म प्रकृतियाँ ४५ ही मानी हैं।१ .
सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियाँ घातिकर्मों की प्रकृतियों के दो भेद हैं। उनमें से कुछ प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं, कुछ देशघातिनी हैं। द्रव्यसंग्रह (टीका) में कहा गया है-सब प्रकार से आत्मगुण-प्रच्छादक कर्मों की शक्तियाँ सर्वघातिनी और विवक्षित एकदेश रूप से आत्मगुण-प्रच्छादक शक्तियाँ देशघातिनी कहलाती हैं। कषायपाहुड के अनुसार-अपने से प्रतिबद्ध जीव के गुण को पूरी तरह से घातने का जिसका स्वभाव है, उस अनुभाग को सर्वघाती कहते हैं।२ जो सर्वघातिनी हैं, वे आत्मा के गुणों का पूर्णतया घात (क्षति) करती हैं। अर्थात्-उनका उदय होते हुए कोई आत्मिक गुण प्रकट नहीं हो सकता। कर्मग्रन्थ पंचम भाग में बीस प्रकृतियाँ सर्वघातिनी बतलाई हैं। वे बीस सर्वघातिनी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-(१) केवलज्ञानावरण, (२) केवल दर्शनावरण, (३ से ७) पांच निद्राएँ, (८-१९) बारह कषायें (अनन्तानुबन्धी-चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क) तथा (२०) मिथ्यात्व। गोम्मटसार, पंचसंग्रह और राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में 'सम्यक्-मिथ्यात्व' को लेकर इक्कीस प्रकृतियाँ सर्वघातिनी मानी गई हैं। इस एक प्रकृति के अन्तर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में बन्ध-प्रकृतियों की संख्या को लेकर सर्वघाती देशघाती का विभाग किया गया है, जबकि गोम्मटसार आदि में उदयं-प्रकृतियों की संख्या को लेकर उक्त विभाग किया गया है। इसी प्रकार देशघाती कर्म प्रकृतियों में भी एक प्रकृति सम्यक्त्वप्रकृति बढ़ गई हैं। चूंकि सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय प्रकृति का बन्ध नहीं होता, किन्तु उदय होता है। और घातित्व अघातित्व का सम्बन्ध उदय के साथ है। यही कारण है कि कर्मग्रन्थ में
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधरकेसरीजी) से
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. १३-१४ २. (क) द्रव्यसंग्रह टीका ३४/९९ . (ख) कषाय-पाहुड ५/३/३/११
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