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४०८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
बन्ध-प्रकृतियों की संख्या की अपेक्षा देशघातिनी कर्म- प्रकृतियाँ २५ बतलाई हैं, जबकि गोम्मटसार आदि में सम्यक्त्व मोहनीय सहित २६ कही हैं। वे इस प्रकार हैं- (१-४) ज्ञानावरणादि चार, ( ५-७ ) दर्शनावरण की तीन (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ), ( ८-११) संज्वलन कषाय- चतुष्क, ( १२ - २०) नौ हास्यादि नोकषाय, तथा (२१-२५) पांच अन्तराय । ' (२६) सम्यक्त्वमोहनीय |
सर्वघातिनी में सर्वघात शब्द का रहस्यार्थ
एक स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि यहाँ सर्वघात का अर्थ मात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि इन गुणों का नामशेष कर देना या अनस्तित्व कर देना। क्योंकि यह पहले कहा जा चुका है कि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभाव में आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व में कोई अन्तर नहीं रहेगा। इसलिए सर्वघातिनी कर्म प्रकृतियाँ न तो आत्मा के ज्ञानादि गुणों के पूर्णतया प्रकटन को रोक सकती हैं और न ही उनकी प्रकाशादि क्षमता को ।
सर्वघातिनी प्रकृतियाँ कैसे सर्वघात करती हैं ?
जैसे- केवलज्ञानावरण आत्मा के केवलज्ञान को पूरी तरह आवृत करता है । किन्तु जिस प्रकार मेघपटल द्वारा सूर्य के पूरी तरह आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का कुछ अंश अनावृत ही रहता है। यदि मेघपटल सूर्य की उस अवशिष्ट प्रभा को भी आवृत कर ले, कि दिन और रात में कोई अन्तर ही न रहे तब तो वर्षाकाल में दिन और रात में कोई अन्तर ही न रह सकेगा। फिर भी जैसे मेघपटल सूर्य का सर्वात्मना आवारक कहलाता है, उसी तरह केवलज्ञानावरण केवलज्ञान का सर्वघाती कहलाता है, क्योंकि उसके सर्वथा हटाये बिना केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सकेगा। इसी तरह केवलदर्शनावरण भी केवलदर्शन का पूरी तरह घात करता है, फिर बी उसका अनन्तवाँ भाग नित्य अनावृत ही रहता है। इसका सर्वघातित्व भी केवलज्ञानावरण की तरह समझ लेना चाहिए।
पांचों निद्राएँ भी वस्तुओं का सामान्य प्रतिभास नहीं होने देतीं, अतः सर्वघातिनी हैं। सोते समय मनुष्य को जो थोड़ा बहुत ज्ञान रहता है, उसे भी पूर्ववत् मेघ के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिए। बारह कषायों में से अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व-गुण का घात करती है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशचारित्र का घात करती है,
१. (क) केवल जुयलावरणा पणनिद्दा बारसाइमकसाया । मिच्छति सव्वघाई चउणाण-तिदंसणावरणा ॥१३॥ संजलण नोकसाया विग्धं इय देसघाइय अघाई । पत्तेय-तणुद्धाऊ तसवीसा गोयदुगवन्ना ॥ १४॥ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ (पं. कैलाशचन्द्रजी) विवेचन, से पृ. ४२, ४३
(ग) पंचसंग्रह (प्रा.) ४९.३, ४८४
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