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३७४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) है-सेमल (शाल्मली) वृक्ष-सम संस्थान। जिस प्रकार सेमल वृक्ष का धड़ जैसा पुष्ट होता है, वैसा ऊपर का भाग नहीं होता, इसी प्रकार जिस शरीर में नाभि के नीचे का भाग पुष्ट परिपूर्ण हो, और ऊपर का भाग हीन हो, वह साची संस्थान है। जिस कर्म के उदय से जीव को सादि/साची संस्थान मिलता है, वह सादि/साची संस्थान नामकर्म है। इस संस्थान का रूप समभुज त्रिकोणात्मक A जैसा होता है।'
कुब्जक संस्थान नामकर्म-जिस कर्म के उदय से कुब्ज (कुबड़े) शरीर की प्राप्ति . हो, वह कुब्जक संस्थान-नामकर्म है। जिस शरीर में हाथ-पैर, सिर, गर्दन आदि अवयव ठीक हों, किन्तु छाती, पीठ, पेट आदि अवयव टेढ़े मेढ़े हों, वह कुब्जकसंस्थान है। वामन-संस्थान-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से वामन (बौना-ठिगना) शरीर प्राप्त हो, उसे वामन संस्थान-नामकर्म कहते हैं। जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट आदि अवयव पूर्ण हों, किन्तु हाथ-पैर आदि अवयव छोटे हों, कद में ठिगने हों, उसे वामनसंस्थान कहते हैं। हुण्डकसंस्थान-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर के सभी अवयव बैडौल एवं बेढंगे हों, यथायोग्य प्रमाणयुक्त न हों, वह हुण्डक-संस्थान-नामकर्म कहलाता है।
देव समचतुरन-संस्थान वाले होते हैं। नारक तथा तीन विकलेन्द्रिय (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय) जीव हुण्डक संस्थान वाले होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों और मनुष्यों के समचतुरन आदि छहों संस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के हाथ-पैर आदि अवयव न होने से उनके संस्थान नामकर्म का उदय नहीं होता। तथा संस्थान नामकर्म का उदय भव-धारण कर लेने के अनन्तर होता है, इसलिए विग्रहगति में संस्थान-नामकर्म का उदय नहीं रहता।
(९) वर्णनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर काला, गोरा, पीला, हरा या श्वेत वर्ण वाला बनता है, उसे वर्णनामकर्म कहते हैं। इस कर्म के पांच भेद हैं(१) कृष्णवर्णनाम, (२) नीलवर्णनाम, (३) लोहितवर्णनाम, (४) हारिद्रवर्णनाम और (५) श्वेतवर्णनाम।
लक्षण इस प्रकार हैं-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कोयले-सा काला (कृष्ण) हो, वह कृष्णवर्णनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर का वर्ण १. (क) समचउरस निगोह-साइ-खुज्जाई वामणं हुडं । संठाण । -कर्मग्रन्थ प्रथम ३९ (ख) संस्थानमाकृतिः।
-सर्वार्थसिद्धि (ग) तत् संस्थानं द्विविधमित्थलक्षणमनित्थलक्षणं चेति ।
वही ५/२४ (घ) भगवती २५/३/७२४ (ङ) प्रज्ञापना १/४ जीवाभिगम प्रतिपत्ति । (च) यदुदयादौदारिकादिशरीराकारो भवति तत्संस्थानम् । -कर्मप्रकृति टीका ७३, ७२ (छ) अवयवरचनात्मक-शरीराकृति-स्वरूपाणि शरीरे भवन्ति । -कर्मग्रन्थ प्रथम टीका ३९ (ज) कर्म प्रकृति (आ. जयन्तसेनसूरिजी) से पृ. ८८ से ९१
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