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३८२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रारम्भ हो जाता है। किन्तु आहार के बाद शरीर, शरीर के बाद इन्द्रिय आदि मन-पर्यन्त पूर्णता क्रमशः होती है।' पर्याप्त जीवों के दो भेद
पर्याप्त जीवों के दो भेद होते हैं-लब्धि-पर्याप्त और करणपर्याप्त। जो जीव स्वयं योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं, वे लब्धि-पर्याप्त हैं। करण-पर्याप्त के दो अर्थ हैं-(१) करण का अर्थ है-इन्द्रिय। जिन जीवों ने अपनी इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, उन्हें करणपर्याप्त कहते हैं, (२) जिन जीवों ने अपनी-अपनी योग्य-पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं, वे भी करणपर्याप्त कहलाते हैं। छह पर्याप्तियाँ मानने का कारण
पूर्वोक्त आहारादि छह पर्याप्तियाँ मानने का कारण यह है कि प्रत्येक संसारी जीवित प्राणी में पूर्वोक्त छह क्रियाएँ नियमित रूप से चलती हैं-(१) आहार (भोजन-पान) करना, (२) शरीर-स्थिति, (३) इन्द्रियों की रचना, (४) नियमित श्वासोच्छ्वास लेना, (५) बोलना और (६) विचार करना। ये छह कार्य करने की शक्ति हम अपने में प्रतिक्षण अनुभव करते हैं। यदि इन कार्यों को करने की शक्ति न रहे तो, जीवित हैं, इसमें सन्देह पैदा हो जाता है। जीने का कार्य (दशविध प्राण धारण करने का कार्य) बंद हुआ कि प्राणी को प्रायः मृत घोषित कर दिया जाता है और जब दूसरे जन्म में पुनः ये ६ शक्तियाँ-(जीने के साधन सामग्री) मिलती हैं, तब जीवित कहलाता है। इस प्रकार ६ शक्तियों के साधनों का नामकर्म शास्त्रीय भाषा में पर्याप्ति है। ये ६ शक्तियाँ जीवन-पर्यन्त रहती हैं। जीव के लिए जन्म होने के समय में ही ऐसी व्यवस्था स्वतः हो जाती है कि उत्पन्न होने वाले जीव को अपने-अपने जीवन
१. (क) तस-बायर-पज्जत्तं पत्तेय-थिरं सुभं च सुभगं च । सुसराऽऽइज्ज जसं तस-दसर्ग................... ||
-प्रथम कर्मग्रन्थ ४६ (ख) यदुदयाद्जीवास्त्रसा भवन्ति तत् त्रसनामेत्यर्थः ।
-वही, टीका ४८ (ग) बि-ति-चउ-पणिंदिय तसा ।
-वही गा. ४८ (घ) यदुदयाद् जीवा बादरा भवन्ति तद् बादर नामेत्यर्थः ।
-वही टीका ४८ (ङ) निय-निय-पज्जत्तिजुया पज्जत्ता ।
-वही गा. ४८ (च) प्रज्ञापना १/१२ टीका (छ) भगवती ३/१/१३ (ज) आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाण आसाए । होति मणो विय कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा ॥
-मूल आराधना १०४५ (झ) एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय- संज्ञिपंचेन्द्रियाणां च चतुः पंच षट् संख्या भवन्ति ।
___-प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ४८ (ञ) औदारिक शरीरिणां पुनराहार-पर्याप्तिरेवैका एक सामयिकी, शेषाः पुनरान्तैर्मुहूर्तिक्यः ।
-वही टीका ४८
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