Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 442
________________ ३९४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) दान देने में विघ्न उपस्थित हो जाता है, वह दानान्तराय कर्म है। दान का लक्षण हैअपने और दूसरे के उपकार अथवा कल्याण के लिए अपने स्वामित्वं या अधिकार की वस्तु का अतिसर्ग कर देना - त्याग कर देना दान है। स्थानांगसूत्र में दान के दसप्रकार बताये हैं- (१) अनुकम्पादान - किसी दीन-दुःखी, अनाथ असहाय या पीड़ित प्राणी पर अनुकम्पा करके दान देना - सहयोग देना । (२) संग्रहदान - आपत्ति आदि आने पर सहायता प्राप्त करने या अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कुछ देना, अथवा रिश्वत देना संग्रहदान है। (३) भयदान - राजा, मंत्री, सरकार, डाकू, लुटेरे आदि को भयवश देना भयदान है। ( ४ ) कारुण्य - दान - पुत्रादि के वियोग से होने वाला शोक, कारुण्य है। शोक के समय पुत्रादि के नाम पर दान देना कारुण्यदान है। (५) लज्जादान - लज्जा के वश शर्माशर्मी या देखादेखी जो दान दिया जाता है, वह लज्जादान है। (६) गौरवदान - अपने यश, कीर्ति, प्रशंसा, नामबरी, प्रसिद्धि और गौरव के लिए जो दान दिया जाता है, वह गौरवदान है । (७) अधर्मदान - जो द हिंसा, झूठ- फरेब, चोरी, पशुबलि, मांसोत्पादन, मत्स्योत्पादन आदि अधर्म की पुष्टि के लिए दिया जाता है, वह अधर्मदान है। (८) धर्मदान - धर्मकार्यों में या धर्मपरायण त्यागी साधु श्रावकों को दिया गया दान । (९) करिष्यति दान - भविष्य में प्रत्युपकार की आशा से दिया गया दान और (१०) कृतदान - पहले किये हुए उपकार के बदले में ( उपहार, पुरस्कारादि के रूप में) दिया गया दान । ' दान के चार प्रकार और भी है। जैसे कि (१) ज्ञानदान - ज्ञान प्रदाना, पढ़ने-पढ़ाने वालों की सहायता करना, ग्रन्थादि देना। इसे विद्यादान भी कहते हैं। (२) अभयदानदुःखों, संकटों और विपत्तियों से पीड़ित, या मारे जाते हुए भयभीत जीवों को भयरहित करना। (३) औषधदान - रुग्ण साधु-साध्वियों या रुग्ण, अशक्त, रोगग्रस्त व्यक्तियों को दवा, पथ्य, चिकित्सा आदि में सहयोग देना। इसके बदले में धर्मोपकरणदान का उल्लेख भी किसी-किसी ग्रन्थ में है। उसका अर्थ है - छह काया के आरम्भ से निवृत्त, पंचमहाव्रतधारी, त्यागी अनगार श्रमण श्रमणियों के आहार, पानी, वस्त्र, पात्रादि धर्मपालन में सहायक धर्मोपकरण देना! (४) अनुकम्पादानअनुकम्पापात्र, असहाय, अशरण, संकटग्रस्त व्यक्तियों को दया की भावना से दान देना । अन्तरायकर्म दान का प्रसंग आने, इच्छा होने पर भी उसमें विघ्न डाल कर दाता के मनोरथ को विफल कर देता है। लाभान्तरायादि कर्मों का स्वरूप (२) लाभान्तराय कर्म - योग्य सामग्री, साधन, योग्यता - पात्रता आदि रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव को अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है, उसे १. (क) स्थानांग सूत्र, स्थान १० (ख) ज्ञान का अमृत से पृष्ठ ३६३-३६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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