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उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५
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ऐश्वर्यशालियों को वह देख-रेख कर तरसता रहता है। वैभव की दृष्टि से उसे सर्वत्र निराशा ही हाथ लगती है । '
उच्च-गोत्रकर्म का फलभोग स्वतः भी, परतः भी उच्चगोत्रकर्म और नीच गोत्रकर्म का फल स्वतः और परतः दोनों प्रकार से मिलता है। जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के अनुसर - उच्चगोत्र कर्म के उदय से व्यक्ति स्वतः विशिष्ट जाति, कुल, बल आदि के रूप में फलभोग करता है, यह स्वतः अनुभाव है। उच्चगोत्रकर्म का परतः अनुभाव ( फलभोग) एक या अनेक विशिष्ट द्रव्यादिरूप पुद्गलों या विशिष्ट व्यक्तियों का निमित्त पाकर जीव प्राप्त करता है। जैसे- र - राजा आदि ( मंत्री आदि) विशिष्ट पुरुषों द्वारा अपनाए जाने से नीच जाति और कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति भी जाति - कुल सम्पन्न की तरह माना जाता है। लाठी आदि घुमाने से, प्राणायाम क्रिया से श्वास रोककर छाती पर मनभर की चट्टान को हथौड़े से पिटवाने आदि से दुर्बल व्यक्ति भी बलिष्ठ माना जाता है। विशिष्ट वस्त्रालंकारों के धारण करने से कुरूप व्यक्ति भी रूपसम्पन्न मालूम होने लगता है। अमुक तीर्थ के पर्वत-शिखर पर चढ़ कर आतापना लेने से तपविशिष्टता प्राप्त हो जाती है। अमुक पवित्र एवं शान्त प्रदेश में स्वाध्याय, अध्ययन आदि करने से व्यक्ति श्रुतविशिष्टता का अनुभव कर लेता है। विशिष्ट रत्नादि की या धनादि की प्राप्ति द्वारा अमुक महापुरुष की सेवा करने से व्यक्ति लाभ विशिष्टता की अनुभूति प्राप्त कर लेता है। धन, सुवर्ण, सत्ता, पद आदि का निमित्त पाकर अथवा दान, सेवा आदि स्वयं करने या उसकी दलाली करने से जीव ऐश्वर्य - विशिष्टता का उपभोग प्राप्त करता है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गल-परिणामों के निमित्त से भी जीव उच्चगोत्र का अनुभाव करता है। कई बार मन के, कई बार वचन के पुद्गलों से भी ऐसी विशिष्टता का अनुभाव (फलभोग) होता है। अकस्मात् कोई बात कही और वह वैसी ही घटित हो गई, इससे उसकी प्रशंसा और प्रसिद्धि होने से परतः उच्चगोत्रभाव होता है।
नीच गोत्रकर्म का अनुभाव भी स्वतः परतः दोनों प्रकार से
नीच गोत्रकर्म का फल ( अनुभाव ) भी स्वतः और परतः दोनों प्रकार से भोगा जाता है। नीचगोत्रकर्म के उदय से जीव का जातिहीन, कुलहीन आदि होना स्वतः अनुभाव माना जाता है। परत: अनुभाव नीचकर्म का आचरण करने से, नीच और कलंकित, पापी पुरुषों की संगति आदि रूप एक या अनेक जीवों या पुद्गलों की सम्बन्ध पाकर जीव नीचगोत्रकर्म का अनुभाव (वेदन) करता है। जैसे - जातिवान् और कुलवान् व्यक्ति भी अधम जीविका के करने से या व्यभिचारादि अन्यान्य नीच कृत्यों
१. ज्ञान का अमृत से पृ. ३५९-३६० २. वही, ३६१
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