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उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५ ३८७
व्यक्ति की नीचता या उच्चता का मापदंड या आधार धनसम्पत्ति, या सत्ता, पद आदि नहीं, किन्तु गोत्रकर्म है। मान-अपमान के, यश-अपयश के कारणभूत' प्रशस्त और अप्रशस्त कुल की जो प्राप्ति होती है, इसका कारण जैनकर्मविज्ञान के अनुसार सत्ता या सम्पत्ति, शारीरिक बल या बुद्धि नहीं, अपितु गोत्रकर्म है। गोत्रकर्म ही जीव को जाने-माने और यशस्वी कुल में पैदा करता है, और वही कर्म उसे निन्द्य, घृणित एवं कलंकित कुल की प्राप्ति कराता है। इस दृष्टि से उच्च एवं शुभ आचरण उच्च गोत्र का, तथा नीच एवं निन्ध अशुभ आचरण नीच गोत्र का द्योतक है। यही गोत्र कर्म का कार्य और स्वभाव है।
गोत्रकर्म के दो भेद हैं- उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र। जिस कर्म के उदय से जीव (पूर्वजन्मकृत उच्च एवं शुभ कृत्य के फलस्वरूप ) उच्च प्रशस्त एवं श्रेष्ठकुल में जन्म लेता है, उसे उच्चगोत्र - नामकर्म कहते हैं। उच्च गोत्रकर्म देश, जाति, कुल, स्थान, मानसम्मान, ऐश्वर्य आदि के उत्कर्ष का भी कारण है। शुभ एवं शिष्ट आचार-विचार, धर्म और नीति-न्याय आदि की दृष्टि से जिस कुल ने ख्याति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा अर्जित की हो, वही कुल उच्चकुल कहलाता है। इसके विपरीत जो आचार-विचार और सुसंस्कार में पिछड़ा हुआ हैं, नीति-न्याय धर्म की उपेक्षा उपहास करता है, जिसके आचार-विचार भी दूषित निम्न व अप्रशस्त हैं, वह कुल नीचकुल कहलाता है।
प्राचीनकाल में हरिवंश, चन्द्रवंश, सूर्यवंश आदि कुल नीति और धर्म के सम्पोषक पूर्ण संरक्षक-संवर्द्धक होने से उच्चकुल माने जाते थे। इसके विपरीत वधिकवंश, कसाइयों का वंश, मद्य-विक्रेतु-वंश, चोरवंश, (डाकूवंश) आदि नीचवंश, हिसंक, भ्रष्टाचारी, अनीतिपोषक एवं अधर्मप्रधान होने से नीचकुल माने गए हैं। अतः कर्मविज्ञान के अनुसार- पूर्वोक्त उच्चकुल की प्राप्ति का कारण उच्चगोत्रकर्म और पूर्वोक्त नीचकुल की प्राप्ति का कारण नीचगोत्र कर्म है।
उच्चगोत्रकर्म जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, श्रुत और ऐश्वर्य के उत्कर्ष का निष्पादक है। इसके विपरीत नीचगोत्रकर्म जाति - कुलादि की निष्कृष्टता निम्नता का नेष्पादक है। इसी अपेक्षा से उत्तराध्ययन सूत्र में उच्च जाति- कुलादि आठ बातें च्चिंगोत्र कर्म के. तथा ये ही आठ नीच जाति कुलादि आठ बातें नीच गोत्रकर्म के भेद माने गए हैं। ये १६ भेद पूर्वोक्त आठों की विशिष्टता - हीनता के द्योतक हैं।
(क) कर्मप्रकृति से पृ. १२४
(ख) गोयं कम्म दुविहं उच्चनीयं च आहिये ।
(ग) प्रज्ञापना २३ / २
(घ) तत्त्वार्थसूत्र ८ / १३
(ङ) कम्मपयडी १0१
(च) उच्च अट्ठविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ।
- उत्तराध्ययन ३३/१४
उच्चैर्गौत्रं देश-कुल-जाति-स्थान-मान-सत्कारेश्वर्याद्युत्कर्ष- निवर्तकम् । विपरीतं नीच गोत्रं चाण्डाल- मुष्टिक-व्याध-मत्स्यबन्ध- दास्यादि - निवर्तकम् ॥ - तत्त्वार्थभाष्य ८ / १३
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- उत्तरा. ३३/१४
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