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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३७५ (रंग) तोते के पंख जैसा हरा हो वह नीलवर्णनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर सिंदूर-सा लाल (रक्त) हो, वह लोहितवर्णनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर का रंग हल्दी जैसा पीला हो, वह हारिद्रनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर शंख जैसा सफेद (श्वेत) हो, वह श्वेतवर्ण नामकर्म है। वर्णनामकर्म के भेदों में पांच वर्षों के जो नाम दिये गये हैं, वे ही पांच मूल वर्ण हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी लोकप्रसिद्ध वर्ण हैं, वे इन्हीं के संयोग से जन्य हैं।
(१०) गन्धनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की शुभ/अच्छी या अशुभ/बुरी गन्ध हो, उसे गन्धनामकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं-सुरभिगन्ध नामकर्म और दुरभिगन्धनामकम। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की गुलाब, केसर, कस्तूरी, कपूर, इत्र जैसी सुगन्ध होती है, उसे सुरभिगन्ध नामकर्म कहते हैं। इसके विपरीत जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की सड़ी-गली वस्तुओं जैसी बुरी गन्ध (दुर्गन्ध) हो, वह दुरभिगन्ध नामकर्म कहलाता है।२
(११) रस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर तीक्ष्ण आदि रसों वाला हो, अथवा जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ-अशुभ रसों की उत्पत्ति हो, उसे रसनामकर्म कहते हैं। रसनामकर्म के पांच भेद हैं-(१) तिक्तरसनाम, (२) कटुरसनाम, (३) कषायरसनाम, (४) अम्लरसनाम और (५) मधुररसनाम। लक्षण-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस सोंठ,३ या कालीमिर्च जैसा चरचरा हों, वह तिक्तरसनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस चिरायता, नीम, कड़वी वस्तुओं जैसा कटु हो, वह कटुरसनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस आंवला, बहेड़ा जैसा कसैला हो, वह कषाय-रसनामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस नींबू, इमली आदि खट्टे पदार्थों जैसा हो, वह अम्लरस-नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस मिश्री, शक्कर, मधु आदि मीठे पदार्थों जैसा हो, वह मधुररसनामकर्म कहलाता है। मूल में, तिक्त
१. (क) शरीराणां श्वेतादि वर्णान् यत्करोति तद् वर्णनाम । ___-कर्मप्रकृति टीका ९१ (ख) जस्स कम्मस्स उदएण जीव-सरीरे वण्ण-णिप्पत्ती होदि तस्स कम्मक्खंधस्स वण्णसण्णा ।
- -धवला ६/१. (ग) ...'बन्ना किण्ह-नील-लोहिय-हलिद्द-सिया ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ ३९ (घ) कम्मपयडी ९१ (ङ) स्थानांग ५/३९० (क) यदुदयप्रभवो गन्धस्तद्गन्धनाम ।
-सर्वार्थसिद्धि ८/99 (ख) सुरही दुरही ।
-प्रथम कर्मगन्थ ४० (ग) यदुदयात् जन्तु शरीरं कर्पूरादिवत् सुरभिगन्धं भवति तत् सुरभिगन्धं नाम। वैमुख्य दुरभिगन्धः।
-कर्मग्रन्थ १/४० ३. जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे "तित्तादि रसो होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स रससण्णा ।
-धवला ६/१
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