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३२२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
है। इस कषाय के वशीभूत जीव संसार - परिभ्रमण में मनुष्यगति में जाने योग्य कर्मों को ग्रहण करता है। ?
संज्वलन - कषाय- जिस कषाय का उदय आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति न होने दे; अर्थात् - जो कषाय यथाख्यातचारित्र का घात करता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति में बाधक बनता है। जो कषाय परीषहों और उपसर्गों के आने पर साधु के चित्त में समाधि और शान्ति नहीं रहने देता और दशविध श्रमणधर्म, महाव्रत, या सर्वविरति चारित्र को प्रभावित करता है; उसके सर्वविरति चारित्र को फीका कर देता है, उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। यद्यपि संज्वलन - कषाय सर्वविरतिरूप श्रमणधर्म के पालन में बाधक नहीं है, किन्तु उसमें मलिनता लाकर सर्वोच्च यथाख्यातचारित्र की उत्पत्ति (प्राप्ति) में बाधा पहुँचाता है। इस कारण इसे चारित्र - मोहनीय कर्म की प्रकृति मानने में कोई विरोध नहीं है।
संज्वलन कषाय का अन्तिम प्रकार है। संज्वलन के कषायचतुषक के उदय होने पर आत्मा थोड़ा-सा उद्दीप्त उत्तेजित हो जाता है, जरा-सा आवेश में आ जाता है। यह आवेश भी बहुत सादा होता है, थोड़ी-सी झलक दिखाता है, जरा-सा परवश हो जाता है, फिर तुरंत ही स्वभाव में आ जाता है। ये चारों प्रकार के मनोविकार संज्वलनकषाय में ऊपर-ऊपर से असर करते हैं। यह असर भी लम्बे समय तक नहीं चलता, तुरंत उस विकार को भूल जाता है, और आया हुआ क्षणिक विकार भी लुप्त हो जाता है। संज्वलन कषाय की स्थिति अधिक से अधिक १५ दिन की है। इस कषाय के वशीभूत हुआ जीव देवगति में जाने योग्य कर्मों को ग्रहण करता है । २ अनन्तानुबन्धी से संज्वलन तक का प्रतिफल
अनन्तानुबन्धी कषाय में जिनेन्द्र वर्णीजी के अनुसार वासना दृढीभूत होकर अनन्तकाल तक टूटती नहीं है। एक बार उत्पन्न हुई भोगासक्ति या क्रोधादि कषायवासना मिथ्यादृष्टि के जन्म-जन्मान्तर तक बनी रहती है। भोगादि का बाह्य त्याग कर दिये जाने पर भी, तथा कषाय मन्द हो जाने पर भी उनकी वासना का त्याग नहीं हो पाता।
१. (क) सर्व - सावध-विरतिः प्रत्याख्यानमिहोच्यते । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥
२. (क) संज्चलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति ।
(ख) संज्वलनास्ते यथाख्यात चारित्र - परिणामं कषन्ति । (ग) परीषहोपसर्गेपनिपाते यतिमप्यमी ।
समीषद ज्वलयन्त्येव तेन संज्वलनाः स्मृताः ॥ (च) संजमम्मि मलमुव्वाइय जहाक्खाद-चारित्तप्पत्ति-पडिबंधयाणं चारित्तावरणत्ता विरोहा।
-धवला ६/१/९-१
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- प्रथम कर्मग्रन्थ टीका १७
- तत्त्वार्थ भाष्य ८ / १0
- गोम्मटसार ( जी.) २८९
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