________________
उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३३१ कर्मग्रन्थ में दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध के जो ७ कारण बताए हैं, उनमें एक-दो को छोड़कर शेष कारण तत्त्वार्थसूत्र और स्थानांग में प्रतिपादित कारणों से मिलते जुलते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) उन्मार्ग-देशना-(संसार के कारणों तथा सांसारिक कार्यों का मोक्ष के कारणों, कर्ममुक्ति के कारणों के रूप में उपदेश देना। (२) सन्मार्ग का अपलाप (लोप) करना (संसारनिवृत्ति और मुक्तिप्राप्ति के मार्ग का अपलाप करना कि न मोक्ष है, न पुण्य-पाप है, जो कुछ सुख है, इसी जीवन में है, खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ आदि), (३) देवद्रव्य-हरण-(इसके दो अर्थ हैं-लौकिक दृष्टि से-देवोंधर्मदेवों-अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय, साधु-साध्वी आदि के नाम से स्थापित संस्थाओं-धर्मस्थान, उपाश्रय, मन्दिर, ज्ञानशाला, विद्यापीठ, सिद्धान्तशाला आदि के लिए अर्पित द्रव्य को हड़प जाना, उसमें गबन करना, भ्रष्टाचार करना, अपने उपयोग में लेना, उसकी व्यवस्था करने में गड़बड़ करना, प्रमाद करना, दूसरा दुरुपयोग करता हो तो चुप्पी साधना आदि देवद्रव्यहरण के प्रकार हैं। लोकोत्तर दृष्टि से-देवपरमात्मा या ज्ञानादि गुणयुक्त शुद्ध आत्मा देव है, आत्मा को अपने पूर्व पुण्य से, तथा वीतराग जिनेन्द्रदेव से जो द्रव्य-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शक्ति और आनन्दरूपी आध्यात्मिक धन मिला है, उसको व्यर्थ ही नष्ट करना, उसका दुरुपयोग करना, उस आध्यात्मिक धन को प्रमाद, कषाय, निन्दा-विकथा, अज्ञानता आदि में लुटा देना, उस द्रव्य का हरण करना-उड़ाना है।) (४-५-६-७) जिनेन्द्र, मुनिवर्ग, एवं चैत्य (ज्ञानदर्शन सम्पन्न तपस्वी आदि लौकिक दृष्टि से) की तथा चतुर्विध संघ की निन्दा करना, उनके प्रतिकूल बनकर उनका विरोध करना ये ७ दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध के कारण हैं।'
चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध के कारण चारित्रमोहनीय के मुख्य दो भेद हैं-कषाय-मोहनीय और नोकषाय मोहनीय। क्रोधादि कषायों और हास्यादि नौ नोकषायों तथा विषयों में आसक्त जीव दोनों प्रकार के चारित्रमोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं। यह समुच्चय में चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार-कषायों (तथा उपलक्षण से नोकषायों) के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र परिणाम अर्थात्-कषायों के वशीभूत होकर आत्मा जब एकदम उद्वेलित हो जाता है, तब आत्मा के तीव्र कलुषित (उत्कट) भाव चारित्र मोहनीय कर्म के आनवद्वार (बन्धहेतु) हो जाते हैं। पृथक्-पृथक् कषायों के बन्ध के बारे में इस प्रकार समझना चाहिए-'अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के
(ख) केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
-तत्त्वार्थसूत्र ६/१४ (ग) तत्त्वार्थ-विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. २७६
(घ) सर्वार्थसिद्धि ६/१४ १. (क) उम्मग्गदेसणा-मग्गनासणा, देव-दव्य-हरणेहिं । - दसणमोहं जिण-मुणि-चेइय-संघाइ-पडिणीओ ॥
-कर्मग्रन्थ प्रथम ५६ (ख) कर्मग्रन्थ प्रथम गा. ५६, विवेचन (मरुधरकेसरी) से पृ. १६० से १६२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org