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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३४९ कोई कपटपूर्ण प्रवृत्ति न करना; (२) भाषा की सरलता-बोलते समय कपट का आश्रय न लेना, (३) भावों की सरलता-मनोभावों को छल-कपट से दूर रखना; और (४) अविसंवादन योग-मन-वचन-काया के व्यापारों में एकरूपता होना, मन से सोचना कुछ, कहना कुछ और करना कुछ, इस प्रकार की कुटिलता करना विसंवादन-योग है, जिसका न होना अविसंवादन योग कहलाता है। भगवतीसूत्र की वृत्ति में मन-वचन-काया की सरलता तथा अविसंवादनयोग में अंतर बताते हुए कहा गया है-मन-वचन-काया की सरलता वर्तमानकालीन होती है और अविसंवादन-योग वर्तमान, अतीत और भविष्यकाल की अपेक्षा से है। 'बृहत् हिन्दी कोष' के अनुसार अविसंवाद के फलितार्थ होते हैं-परस्पर-संवादी कथन करना, पूर्वापर विसंगत कथन न करना, सत्य कथन करना (जैसा है, वैसा ही कहना), जिस रूप में प्रतिज्ञा की है, उस रूप में पालन करना (प्रतिज्ञा भंग न करना), किसी को वचन देकर तदनुरूप पालन करना (उसे निराश न करना), प्रवंचना न करना आदि। तत्त्वार्थसूत्र में पं. सुखलालजी विसंवादन का अर्थ करते हैं-अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा दो स्नेहियों में (एक दूसरे के विरुद्ध भड़काकर) भेद पैदा करना। योगवक्रता और विसंवादन में स्व
और पर का अन्तर है कि अपने ही विषय में मन, वचन, काया की प्रवृत्ति भिन्न पड़े, तब योगवक्रता होती है और जब दूसरे के विषय में ऐसा हो, तब विसंवादन होता है। जैसे-कोई सुमार्ग पर चल रहा हो, उसे 'ऐसे नहीं, ऐसे;' इस प्रकार उलटा समझा कर कुमार्ग की ओर प्रवृत्त करना। कर्मग्रन्थ में शुभनामकर्म के बन्ध के कारण बताते हुए कहा गया है-जो व्यक्ति सरल (माया-कपट रहित हो, जिसके मन-वचन-काया का व्यापार एक समान) हो, तथा जो गौरव (गव) रहित (ऋद्धि, रस और साता के गौरवों-गर्वो-अहंकारों से रहित) हो, वह शुभनामकर्म बांधता है।' शुभनामकर्म के अन्तर्गत तीर्थकर नामकर्मबन्ध के बीस कारण
शुभनामकर्म के अन्तर्गत तीर्थंकर नामकर्म भी है। तीर्थंकर नामकर्म (गोत्र) बन्ध के २० कारण हैं, वे इस प्रकार हैं-(१ से ७) अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी, इन सबकी भक्ति करना, इनके गुणों का कीर्तन करना, इनकी
१. (क) देखें-शुभ-अशुभ नामकर्मबन्ध के कारण-इसी खण्ड के 'मूलप्रकृति बन्य : स्वभाव,
.. स्वरूप और कारण' लेख में। (ख) सुभनामकम्मासरीरे-पुच्छा ? गोयमा ! कायउज्जुययाए, भावुज्जुययाए, भासुज्जुययाए
अविसंवाद-जोगेणं सुभनामकम्मासरीर जाव पयोगबंधे । असुभनामकम्मासरीर-पुच्छा ? गोयमा ! काय-अणुज्जुयाए, जाव विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्मा जाव पयोगबंधे ।
-भगवती . श. ८, उ. ९ (ग) योगवक्रता-विसंवादन चाशुभस्यनाम्नः, तद्विपरीत शुभस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ६/२१-२२ (घ) कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (पं. सुखलालजी) से, (छ) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. १६२
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