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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३४७ को बांधते हैं। भोगभूमिज (यौगलिक) मनुष्य और तिर्यञ्च नियम से (मंदकषायी होने से) देवायु बांधते हैं, क्योंकि वे व्रत और शील से बिलकुल अनभिज्ञ हैं। एकान्त बाल (मिथ्यात्वी) में सम्यक्त्व भी नहीं है तो ५ अणुव्रत और ७ शीलव्रत कहाँ से होंगे ? । __इस प्रकार आयुकर्म की सभी प्रकृतियों का सांगोपांग विश्लेषण कर दिया है। इसके चारों प्रकारों के आयुबन्ध के कारणों को समझकर साधक को जागृत रहना चाहिए। सम्यक्त्व संवर है, वह मिथ्यात्वानव और बंध को रोकता है, किन्तु सराग हो तो वह नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, स्त्री-नपुंसकवेद, नीचगोत्र तथा भवनपतिव्यन्तर-ज्योतिष्क देवायु के बंध को रोकता है, केवल वैमानिक देवायु ही बँधती है। किन्तु आयु का बन्ध सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व हो गया हो तो बात दूसरी है, वैसा सम्यक्त्वी चारों गतियों में जा सकता है। जैसे-राजा श्रेणिक को नरक में जाना पड़ा।
नामकर्म के पृथक् अस्तित्व की सिद्धि 'धवला' में नाम कर्म के स्वतंत्र अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा गया है कि 'कारण से कार्य की सिद्धि होती है। कारण के अभाव में कार्य कथमपि सम्भव नहीं है। शरीर, अंगोपांग, संस्थान, वर्ण आदि अनेक कार्य सभी जीवों में विभिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं। ये कार्य ज्ञानावरणीय आदि अन्य कर्मों के कारण नहीं हो सकते, क्योंकि उन कर्मों का स्वभाव ऐसा करना नहीं है। जितने कार्य हैं, उनके पृथक्-पृथक कारणभूत कर्म भी होने चाहिए। अतः शरीर, संस्थान, वर्ण आदि के कारण के रूप में नामकर्म का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है'।२।
. नामकर्म : लक्षण, उत्तरप्रकृतियाँ, स्वरूप और कार्य 'सर्वार्थ-सिद्धि' में नामकर्म की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-'जो कर्म आत्मा को नमाता है, जिसके द्वारा आत्मा नमता है, वह नामकर्म है।' जिस कर्म के उदय से आत्मा नरक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव-गति प्राप्त करके विविध अच्छी-बुरी पर्यायें प्राप्त करता है; अथवा जिस कर्म के उदय से आत्मा गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, संहनन, संस्थान, इन्द्रियाँ आदि शरीर के कण-कण की रचना हो, जीव गति आदि नाना पर्यायों या अवस्थाओं का अनुभव करे, वह नामकर्म है। 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड के अनुसार-'जिस कर्म से जीव में गति आदि भेद उत्पन्न हों, जो देहादि की भिन्नता का कारण हो, अथवा जिसके कारण गत्यन्तर जैसे परिणमन हो, वह नामकर्म कहलाता है।' 'नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवरूप नामकरण करना नामकर्म का स्वभाव है।' जिस प्रकार एक चित्रकार विविध प्रकार के चित्र बनाता है, उनमें विविध रंग भरता है, उनकी विविध आकृतियाँ बनाता है, उन्हें सुरूप-कुरूप या सुडौल-बेडोल बनाता है; १. तत्त्वार्थ. ६/२० विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. २८४ २. (क) धवला ६/१/९-११ सू. १0, पृ. १३ . (ख) वही, ७/२/१ सू. १९, पृ. ७०
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