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३४६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
धन दिया। लोगों ने जब विश्वास दिलाया कि इस वफादार बैल की उचित शुश्रूषा और चिकित्सा की जाएगी, तब मालिक निश्चिन्त और आश्वस्त होकर चला गया। मगर गाँव के लोगों ने उस बैल की शुश्रूषा पर कोई ध्यान नहीं दिया। विश्वासघात करके वे पैसे डकार गए, मगर बैल की शुश्रूषा कुछ नहीं की, यहाँ तक कि उसे खाने-पीने को भी कुछ नहीं दिया। फलतः वह बैल भूख-प्यास एवं शारीरिक पीड़ा को सहता हुआ मर गया। इस अकामनिर्जरा के फलस्वरूप उसने देवायु का बन्ध किया और मर कर शूलपाणि यक्ष बना। उसने उपयोग लगाकर अपनी पूर्वावस्था देखी। क्रोध से आगबबूला होकर उसने सारे गाँव पर कहर बरसाया। गाँव को श्मशान बना डाला। गाँव का नाम पड़ा - अस्थिग्राम।' यह है अकामनिर्जरो का फल !
चारों प्रकार के आयुकर्मों में से कौन किसको बाँधता है ?
इस प्रकार चारों प्रकार के आयुष्यकर्मों का स्वरूप और स्वभाव तथा उनके बन्ध के कारण बताये हैं; फिर भी इनमें कुछ अपवाद हैं, और कुछ सैद्धान्तिक विषय हैं। जैसे कि देव और नारक अपना आयुष्य पूर्ण करके पुनः देवायु या नरकायु का बन्ध नहीं करते, और न ही परस्पर में एक- दूसरे आयु को बाँधते हैं। अर्थात् देव आगामी भव के लिए पुनः देवायु का बन्ध नहीं करते, और न नरकायु का करते हैं। इसी प्रकार नारक न तो पुनः नरकायु का बन्ध कर सकते हैं और न ही देवायु का । तथा अपर्याप्त तिर्यञ्च सम्बन्धी आयु को भी देव व नारक नहीं बाँधते । भुज्यमान आयु के उत्कृष्ट ६ मास रहने पर देव और नारक मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु की बंध करते हैं, लेकिन सप्तम नरक पृथ्वी के नारक तिर्यञ्चायु को ही बाँधते हैं। सम्यग्दृष्टि कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च केवल देवायु और मनुष्यायु का बन्ध करते हैं किन्तु सामान्य मनुष्य और तिर्यञ्च चारों प्रकार की आयु का बन्ध कर सकते हैं। २
व्रत-शीलरहित, प्राणी चारों प्रकार की आयु को बांधते हैं
भगवतीसूत्र में बताया है कि एकान्त बाल ( व्रत और शील से रहित) मनुष्य नरकायु भी बांधता है, तिर्यञ्चायु भी बांधता है, मनुष्यायु भी बांधता है और देवायु का भी बन्ध करता है। जैसे कि तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है - निःशीलता और व्रतरहितता चारों प्रकार के आयुष्यकर्मबन्ध का कारण हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नरकायु व तिर्यञ्चायु को तथा तैजस्कायिक एवं वायु कायिक ३ तिर्यञ्चायु
१. (क) बालतप के लिये देखें औपपातिक सूत्र के पाठ ।
(ख) रे कर्म तेरी गति न्यारी ! से १४८, १४९
२. तत्त्वार्थसूत्र ६ / १८
३. (क) निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् । ६ / १९ तत्त्वार्थसूत्र विवेचन से, पृ. २८१, २८२
(ख) एगंतबाले णं मणुस्स नेरइयाउं पि पकरेइ, तिरियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पिपकरेइ,
देवाउयं पिपकरेइ |
- भगवती. श. १, उ.८
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