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३६६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कार्मण शरीर की भाँति अप्रतिघाती या अव्याहतगति वाले, इसलिए नहीं कहे गए कि अप्रतिघात का एक विशिष्ट अर्थ है-जिसकी लोक के अन्त तक अव्याहत गति हो, बेरोकटोक प्रवेश हो। वैक्रिय और आहारक शरीर अव्याहतगति वाले अवश्य हैं, लेकिन उनकी अव्याहतगति लोक के अन्त तक नहीं है, उनकी अव्याहतगति लोक के एक विशिष्ट भाग त्रसनाडी-पर्यन्त सीमित है, उनका अप्रतिघातित्व एकदेशिक है, सार्वत्रिक नहीं। जबकि तैजस और कार्मण शरीर का अप्रतिघातित्व लोकव्यापी है, उसके अप्रतिघातित्व में कोई प्रतिबन्ध नहीं है, जहाँ तक जीवमात्र विद्यमान है, वहाँ तक ये दोनों जीव के साथ चलते हैं-रहते हैं। तैजस और कार्मण अनादिसम्बन्ध युक्त शरीर __ तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं और जीव के साथ प्रवाह रूप से उनका अनादि सम्बन्ध है। जीव के साथ इन दोनों शरीरों का प्रवाह रूप से जैसा अनादि-सम्बन्ध है, वैसा औदारिक आदि तीनों शरीरों का नहीं है; क्योंकि वे अमुक काल (बद्धआयुष्य) के बाद कायम नहीं रह सकते। अतएव औदारिक आदि तीनों शरीर कादांचित्क अस्थायी सम्बन्ध वाले हैं, जबकि तैजस और कार्मण शरीर अनादि सम्बन्ध वाले हैं। जीव के साथ अनादि सम्बन्ध होने पर भी इनका अन्त इसलिए हो जाता है कि ये दोनों शरीर प्रवाह की अपेक्षा से अनादि , व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। व्यक्ति की अपेक्षा से इनका भी उपचय-अपचय हुआ करता है। जो भावात्मक पदार्थ व्यक्तिशः अनादि है, वह नष्ट नहीं होता, जैसे-परमाणु । ___ औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों को तो सभी जीव समानरूप से धारण नहीं करते, किन्तु तैजस और कार्मण शरीर को सभी जीव समानरूप से धारण करते हैं। जैसे-किसी जीव के केवल औदारिफ शरीर होता है, किसी के केवल वैक्रिय शरीर होता है, तो किसी को विशिष्ट लब्धि प्राप्त होने पर औदारिक के साथ वैक्रिय शरीर उत्पन्न होता है। लेकिन सभी संसारी जीवों को तैजस कार्मण शरीर तो अवश्य प्राप्त होते हैं, चाहे वे तीनों शरीरों में से किसी भी शरीर वाले हों।२ शरीरों का प्रयोजन : उपभोग __एक प्रश्न है-सामान्यतया संसारी जीवों में पाये जाने वाले पाँचों शरीरों का मुख्य प्रयोजन क्या है ? संसारी जीवों के ये शरीर क्यों माने गये हैं ? प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई प्रयोजन होता ही है, इस दृष्टि से इन शरीरों का भी कोई न कोई प्रयोजन होना चाहिए। कर्म वैज्ञानिकों ने शरीरों को भी सप्रयोजन बताते हुए कहा हैशरीर का मुख्य प्रयोजन उपभोग है। उपभोग का अर्थ है-नेत्र-श्रोत्र आदि इन्द्रियों से १. (क) अप्रतीघाते ।
-तत्त्वार्थसूत्र (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. ६८-६९ २. (क) वही, पृ. ६९-७० (ख) अनादिसम्बन्धे च, सर्वस्य ।
-तत्त्वार्य. २/४२-४३
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