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३६४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
अथवा प्रसन्न होने पर शीतलेश्या द्वारा लाभ पहुँचाता है, वह सब भी इसी तैजसशरीर के प्रभाव समझना चाहिए। '
(५) कार्मण शरीर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को कार्मणशरीर की प्राप्ति हो, वह कार्मणशरीर नामकर्म है। ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल और उनकी उत्तर कर्म-प्रकृतियों से (कर्मपरमाणुओं से बना हुआ शरीर कार्मण-शरीर कहलाता है और इसी कारण से जीव नरकादि चतुर्गतिकरूप संसार में जन्म मरण के चक्कर लगाता रहता है, वहाँ प्राप्त सुख-दुःखों का उपभोग करता रहता है।
औदारिक से कार्मणशरीर पर्यन्त विशेषता - औदारिक शरीर के अनन्तर वैक्रिय शरीर आदि कार्मण शरीर पर्यन्त एक के बाद दूसरे को क्रमशः कहने का कारण यह है कि उत्तर - उत्तर के शरीर पूर्व-पूर्व के शरीर की अपेक्षा सूक्ष्मतर हैं। अर्थात् - सबसे स्थूल औदारिक शरीर, उससे सूक्ष्म है- वैक्रिय शरीर, वैक्रिय से सूक्ष्म आहारक और आहारक से सूक्ष्म तैजस तथा तैजस से सूक्ष्म कार्मण शरीर है। यहाँ स्थूल और सूक्ष्म से मतलब रचना की शिथिलता और सघनता से है, परिणाम से नहीं। अतः वैक्रिय, आहारक आदि शरीर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्म और उत्तर- उत्तर की अपेक्षा स्थूल हैं। अर्थात् - जिस शरीर की रचना जिस दूसरे की रचना से शिथिल हो, वह उससे स्थूल और दूसरा उससे सूक्ष्म । यह शिथिलता और सघनता पौद्गलिक परिणति पर निर्भर है। तथा पूर्व-पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तरोत्तर शरीरों के सूक्ष्म होने पर भी औदारिक से वैक्रिय के, वैक्रिय से आहारक के प्रदेश क्रमशः असंख्यात गुणे हैं, तथा आहारक से तैजस और तैजस से कार्मण के प्रदेश अनन्त - अनन्त गुणे हैं। अनन्त भी अनन्त गुणा होने से उनमें तारतम्य है । २
पाँचों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्मतर क्यों ?
पुद्गलों में अनेक प्रकार से परिणमन होने की शक्ति है, जिससे वे परिमाण (मात्रा) में अल्प होने पर भी शिथिलरूप में परिणत होते हैं, तब स्थूल और परिमाण में बहुत होने पर भी जैसे-जैसे सघन (ठोस) होते जाते हैं, वैसे वे सूक्ष्म, सूक्ष्मतर कहलाते हैं। उदाहरणार्थ - रूई और लोहा समान परिमाण में लेने पर रूई की रचना शिथिल होगी, लोहे की उससे सघन - निविड़ । इसी से परिमाण बराबर होने पर भी रूई
9. (क) यदुदया तैजस-शरीर- निर्वृत्तिस्तत्तैजसशरीरनाम । (ख) तेजोनिबन्धनं नाम तैजसनाम ।
(ग) कर्मप्रकृति, पृ. ६४
(घ) ज्ञान का अमृत, पृ. ३१९
२. (क) ज्ञान का अमृत, पृ. ३१९ (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. ६५-६६ (ग) परं परं सूक्ष्मम् ।
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- कर्मप्रकृति टीका ६५
- कर्मग्रन्थ भा. १, टीका ३३
- तत्त्वार्थ. २/ ३८
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