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३७० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ___ IV. युगपत् तैजसकार्मण-संयोगी=३ (१) औदारिक-तैजस-कार्मण, (२) वैक्रिय तैजस-कार्मण और (३) आहारक-तैजस-कार्मण। इस प्रकार बंधन-नामकर्म से विस्तार अपेक्षा से ५+३+४+३=१५ भेद हुए। इनका पूरा नाम कहने के लिए प्रत्येक के साथ बन्धननामकर्म जोड़ देना चाहिए। जैसे-औदारिक-औदारिक-शरीर-बन्धननामकर्म इत्यादि। इनके लक्षण भी पूर्ववत् समझ लेने चाहिए। जैसे-जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर-पुद्गलों का गृह्यमाण औदारिक आदि पुद्गलों के साथ . परस्पर सम्बन्ध हो, वह औदारिक-औदारिक आदि शरीर-बन्धननामकर्म है।'.
(६) संघात-नामकर्म-पूर्वगृहीत और गृह्यमाण औदारिक शरीरादि पुद्गलों का बन्धन तभी सम्भव है, जब वे दोनों एक दूसरे के निकट सन्निहित होंगे। यह कार्य जिस कर्म के द्वारा किया जाता है, उसका नाम है-संघात नामकर्मी संघात का अर्थ है-एकत्रित करके सन्निहित करना। अतः जिस कर्म के उदय से गृहीत और गृह्यमाण शरीर पुद्गल परस्पर सन्निहित होकर व्यवस्थित रूप से स्थापित होते हैं, उसे संघात नामकर्म कहते हैं।
संघातनाम कर्म का कार्य है पूर्वगृहीत और गृह्यमाण औदारिकादि शरीर के योग्य पुद्गलों को परस्पर सन्निहित करके एक दूसरे के पास व्यवस्थित रूप से स्थापित करना। जिससे परस्पर प्रदेशों में अनुप्रवेश से उन पुद्गलों को एकरूपता प्राप्त हो सके। इसके पश्चात् ही वे पुद्गल बन्धन-नामकर्म से भलीभांति सम्बद्ध होते हैं। जैसेदंताली से इधर-उधर बिखरी हुई घास इकट्ठी की जाती है, ताकि बाद में वह गट्ठड़ के रूप में बंध सके। वैसे ही संघातनामकर्म शरीरयोग्य-पुद्गलों को सन्निहित करता (समीप लाता) है, और बन्धन-नामकर्म के द्वारा वे सम्बद्ध होते हैं। औदारिकादि ५ शरीरों के आधार से संघातनामकर्म के भी बन्धननामकर्म की तरह पांच भेद होते हैं(१) औदारिक संघातनामकर्म, (२) वैक्रियसंघातनामकर्म, (३) आहारक संघात-नामकर्म, (४) तैजस संघात नामकर्म, और (५) कार्मणसंघात नामकर्म।
१. (क) कर्मप्रकृति से पृ. ७७-७८ (ख) शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योऽन्य-प्रदेश-संश्लेषणं यतो भवति तद् बन्धन-नाम।
-सर्वार्थसिद्धि ८/११ (ग) उरलाइ-पुग्गलाणं निबद्ध-बझंतयाण संबंध । ज कुणइ जइसम, त उरलाइ-बंधणं नेम ॥
-प्रथम कर्मग्रन्य ३५ (घ) बन्धन-पंचकं न स्यात्तु तेण शरीर-परिणतौ सत्यामप्यसम्बन्धत्वात् पवनाहत
कुंडस्थितास्तीमित-यक्तूजातमिवैक्रम-स्थैर्य न स्यादिति । -प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ३४ (७) पंच य सरीरं बंधणणाम ओराल तह य वेउव्व । आहार तेज-कम्मण-सरीर-बंधण सुणाममिदि ।
-कर्मप्रकृति ७० (च) ओदाल-विउव्वाहाराण सगले य-कम्म-जुत्ताणं । नवबंधणाणि इयर-दुसाहियाणं तिन्नि तेसि च ॥
-प्रथम कर्मग्रन्थ ३७ (छ) कर्म-प्रकृति से पृ. ८०-८१ -
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