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३६८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) एक जीव में एक साथ कितने शरीर सम्भव ?
संसारी जीवों के (विग्रहगति में केवल तैजस और कार्मण शरीर होने से) कम से कम दो शरीर पाये जाते हैं। जब तीन होते हैं, तब वैक्रिय, तैजस और कार्मण या औदारिक, तैजस, कार्मण होते हैं, जब चार शरीर होते हैं, तब तैजस, कार्मण, औदारिक, वैक्रिय अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक होते हैं। पहला विकल्प वैक्रियलब्धि के समय मनुष्यों और तिर्यञ्चों में, जबकि दूसरा विकल्प आहारकलब्धि के समय चतुर्दशपूर्वधारी मुनि में सम्भव है। वैक्रियलब्धि और आहारकलब्धि का युगपत् एक साथ प्रयोग सम्भव नहीं है, इसलिये एक जीव में अधिकतम चार शरीर होते हैं। वैक्रियलब्धि के प्रयोग के समय तथा लब्धि से शरीर बना लेने पर नियम से प्रमत्त दशा होती है, जबकि आहारकलब्धि का प्रयोग तो प्रमत्त दशा में होता है, किन्तु उससे शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय होने से अप्रमत्तभाव पाया जाता है। इसलिए एक साथ ५ शरीर आविर्भाव की दृष्टि से नहीं होते।
(४) अंगोपांगनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के अंग और उपांग के आकार में पुद्गलों का परिणमन होता है, उसे अंगोपांगनामकर्म कहते हैं। अंगोपांग शब्द में अंग, उपांग और अंगोपांग, इन तीन शब्दों का समावेश है। अंग के ८ भेद हैं-दो हाथ, दो उरु (जांघे), पीठ, मस्तक और उर-हृदय (छाती-वक्ष) तथा उदर, ये आठ अंग हैं। अंमों के साथ संलग्न अवयव उपांग कहलाते हैं, जैसे-हाथ-पैर की अंगुलियां, नाक, कान और जंघा से संलग्न दोनों टांगें आदि। अंगुलियों की रेखा, पर्व, केश, रोमराजि आदि को अंगोपांग कहते हैं। हाथ, पैर आदि अंगों के लिये किसी न किसी आकृति की आवश्यकता होती है और आकृति औदारिक आदि प्रथम तीन शरीरों में ही पाई जाती है। इसलिए इन शरीरों के भेद से अंगोपांग नामकर्म के भी तीन भेद होते है-(१) औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म, (२) वैक्रिय शरीर-अंगोपांग नामकर्म, और (३) आहारक शरीर-अंगोपांग नामकर्म। अपने-अपने शरीररूप से परिणत पुद्गलों से उन-उन के योग्य अंगोपांग बनते हैं। जिस कर्म के उदय से
औदारिक शरीररूप से परिणत पुद्गलों से वैक्रिय-शरीररूप से परिणत पुद्गलों से तथा आहारक शरीररूप से परिणत पुद्गलों से, औदारिक अंगोपांगरूप, वैक्रिय अंगोपांगरूप तथा आहारक अंगोपांग रूप अवयव बनते हैं, क्रमशः उनका नाम औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग एवं आहारक-अंगोपांग-नामकर्म है। एकेन्द्रिय जीवों में अंगोपांग-नामकर्म का उदय नहीं पाया जाता है। १. (क) तदादीनिभाज्यानि युगपदेकस्याऽचतुर्थ्यः ।
तत्त्वार्थसूत्र २/४४ (ख) कर्म-प्रकृति से, पृ. ७३-७४
(ग) प्रज्ञापना, पद २१ २. (क) यदुदयात्.. "शरीरत्वेन परिणताना पुद्गलानामंगोपांग-विभागपरिणति रूपं जायते तदंगोपांगनाम ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ३४ (ख) बाहुँस पिट्ठी सिर उर उयरंग, उवंग अंगुली पमुहा। सेसा अंगोवंगा। -वही टीका ३४ (ग) औदालिय-वेगुम्विय-आहारय अंगुर्वगामिदि भणिद। अंगोवंग तिविह -कर्म प्रकृति ७३
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