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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३६३ (३) आहारकशरीर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर प्राप्त हो या बने, उसे आहारक शरीर नामकर्म कहते हैं। आहारक शरीर नामकर्म से प्राप्त होने वाले शरीर का नाम आहारक शरीर है। प्राणिदया, अन्यक्षेत्र (महाविदेह) में वर्तमान तीर्थंकरों की ऋद्धि-दर्शन तथा संशय-निवारण करने आदि कारणों से चौदह पूर्वधारी मुनिराज लब्धिविशेष से जो शरीर धारण करते हैं, वह आहारकशरीर कहलाता है। यह शरीर अतिविशुद्ध, स्फटिक-सा निर्मल, शुभ, व्याघात-रहित, अर्थात्-न तो वह दूसरों से रुकता है और न दूसरों को रोकने वाला होता है। यह शरीर विशिष्ट लब्धिजन्य होता है। यह लब्धि मनुष्य के सिवाय अन्य जीवों में नहीं होती। मनुष्यों में भी सभी को नहीं होती, अपितु चतुर्दशपूर्वधारक मुनिराज को प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि जब कभी किसी चतुर्दश-पूर्वधारी मुनिराज को किसी विषय में सन्देह हो और सर्वज्ञ का सान्निध्य (सामीप्य) न हो, तब औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर में जाना असम्भव समझकर मुनि अपनी विशिष्ट लब्धि के प्रयोग द्वारा एक हस्त (मुण्ड हाथ)-प्रमाण शरीर (का पुतला) बनाते (निकालते) हैं, जो शुभपुद्गलजन्य होने से अव्याघाती होता है। ऐसे शरीर से अन्य क्षेत्र स्थित सर्वज्ञ के पास पहुँचकर और उनसे सन्देह का निवारण कर पुनः अपने स्थान पर आ जाते हैं। यह सारा कार्य अन्तर्मुहूर्त में सम्पन्न हो जाता है। यही आहारक शरीर का स्वरूप और प्रयोजन है। इस प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर मुनिराज इस शरीर को छोड़ देते हैं। वस्तुतः यह आहारक शरीर औदारिक शरीरस्थ रस आदि धातुओं से रहित होता है। यह समचतुरन-संस्थान, शुभ-अंगोपांगों तथा मस्तिष्क (उत्तमांग) से निष्पन्न होता है। यह शरीर क्षणभर में एक लाख योजन गमन करने में समर्थ होता है।२
(४) तैजस शरीर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को तैजस शरीर प्राप्त हो, या बने, उसे तैजसशरीर-नामकर्म कहते हैं। इस नामकर्म से निर्मित शरीर तैजसशरीर कहलाता है। तैजस-परमाणु पुद्गलों से बना हुआ शरीर तैजस है। प्राणियों के शरीर में विद्यमान उष्णता, ऊर्जाशक्ति से इस शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है। • यह स्थूल शरीर पर दीप्ति-विशेष, तेजस्विता, शक्ति, पाचन-क्षमता आदि का कारण है। तपोविशेष से प्राप्त तेजोलब्धि तथा तेजोलेश्या-शीतलेश्या का हेतु भी यही शरीर होता है। कोई-कोई तपस्वी क्रोधाविष्ट होकर तेजोलेश्या के द्वारा दूसरों को हानि
१. (क) आहारक-निबन्धन नाम आहारकनाम । आह्रियते निवर्त्यते इत्याहारकम् ।
-कर्मग्रन्थ टीका ३३ (ख) यस्योदयादाहारक-शरीर-निवृत्तिस्तदाहारकशरीरं नाम । -कम्मपयडी टीका ६८ (ग) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दश-पूर्वधरस्यैव ।
-तत्त्वार्थसूत्र २/४९ २. (क) कर्मप्रकृति से, पृ. ६३-६४ । (ख) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१९
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