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३६२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
होती है, उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं। अर्थात् - जो विविध गुण और ऋद्धियों से युक्त हो और इन ऋद्धियों के संयोग से विविध प्रकार की क्रियाएँ हों, उसे वैक्रियशरीर कहते हैं। जैसे - एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटे शरीर से बड़ा शरीर, और बड़े शरीर से छोटा शरीर बनाना, आकाशगामी होकर पृथ्वी पर चलना, पृथ्वीचर होकर आकाशचारी बनना, दृश्यअदृश्य रूप बनाना; इत्यादि वैक्रिय शरीर नामकर्मजन्य शरीर वैक्रिय है। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है - औपपातिक (जन्मसिद्ध) और लब्धिप्रत्यय ( अजन्मसिद्धकृत्रिम ) | जन्मसिद्ध वैक्रिय शरीर उपपात जन्म से प्राप्त होने वाला औपपातिक कहलाता है। औपपातिक वैक्रियशरीर देवों और नारकों का होता है, जबकि लब्धिप्रत्यय (कृत्रिम) वैक्रिय शरीर विशिष्ट तपोजन्य लब्धि-शक्ति से कुछ ही गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही सम्भव है। इसलिए लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर के अधिकारी किसी-किसी ही गर्भज मनुष्य और तिर्यञ्चों को होता है। वह भी निष्ठापूर्वक विशेष तप आदि करने पर कभी प्राप्त होना सम्भव है । यद्यपि कपितय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में विक्रियात्मक औदारिक शरीर वैक्रियलब्धि के समय पाया जाता है; तथापि गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों के वैक्रिय-नामकर्म का उदय न होने से औदारिक शरीर मुख्य और वैक्रिय शरीर गौण / अप्रधान है। कृत्रिम वैक्रिय की कारणभूत एक दूसरे प्रकार की भी लब्धि मानी जाती है, जो तपोजन्य न होकर जन्म से ही मिलती है। ऐसी लब्धि बाद वायुकायिक तथा तैजस्कायिक जीवों में मानी गई है। जिससे वे भी लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर के अधिकारी हैं । '
दो प्रकार की विक्रिया : एकत्व और पृथक्त्व
विक्रिया दो प्रकार की होती है - एकत्व और पृथक्त्व। अपने शरीर को ही सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूप बना लेना एकत्व - विक्रिया है; जबकि स्वशरीर से भिन्न रूपों को बनाना पृथक्त्व - विक्रिया है । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के तो दोनों ही प्रकार की विक्रिया होती है। ग्रैवेयक से लेकर सर्वार्थसिद्ध- पर्यन्त के कल्पातीत देवों में प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। नारकों में एकत्व विक्रिया होती है। मनुष्यों में तप और विद्या की प्रधानता से एकत्व एवं पृथक्त्व दोनों विक्रियाएँ होती हैं, किन्तु तिर्यञ्चो में एकत्व विक्रिया ही होती है । २
१. (क) कर्मप्रकृति से, पृ. ६०, ६१
(ख) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१८
(ग) यदुदयात् वैक्रियशरीरनिष्पत्तिस्तद्वैक्रिय शरीरं नाम ।
- कर्मप्रकृति टीका ६८
(घ) वैक्रिय - निबन्धनं नाम वैक्रियनाम, यदुदयाद् वैक्रियशरीर-प्रायोग्यान् पुद्गलानादाय वैक्रिय- शरीर-रूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीव प्रदेश: सहाऽन्योन्यानुगममरूपतया सम्बन्धयति । - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ३३
(ङ) नारक- देवानामुपपातः । वैक्रियमौपपातिकं । लब्धिप्रत्ययं च । - तत्त्वार्थसूत्र २ / ३५, ४७, ४८ २. कर्मप्रकृति से, पृ. ६२
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