________________
३६० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) परन्तु दूसरी इन्द्रियाँ अकेली नहीं होतीं। उनका क्रम इस प्रकार है-(२) रसनेन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) चक्षुरिन्द्रिय और (५) श्रोत्रेन्द्रिया' ___ इन पाँचों जातिनामकर्म के लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं-जिस कर्म के उदय से जीव को सिर्फ पहली इन्द्रिय-स्पर्शन (शरीर या त्वचा) इन्द्रिय प्राप्त हो, उसे एकेन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं। जैसे-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। जिस कर्म के प्रभाव से जीव को दो इन्द्रियाँ-स्पर्शन और रसन (जीभ) प्राप्त हों, उसे द्वीन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं। जैसे-लट, सीप, कृमि, अलसिया, चन्दनीया, जौंक आदि। जिस कर्म के उदय से जीव को तीन इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन और घृणा (नाक) प्राप्त हों, उसे त्रीन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं। जैसे-चींटी, मकोड़ा, नँ, लीख, चींचड़, खटमल, गजाई, खजूरिया, उद्दई, धनेरिया आदि। जिस कर्म के उदय से जीव को चार इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु (आँख) प्राप्त हो, वह चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म है। जैसे-मक्खी, मच्छर, भौंरा, टिड्डी, पतंगा, बिच्छू, कंसारी आदि। जिस कर्म के उदय से जीव को स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान), ये पाँचों इन्द्रियाँ प्राप्त हों, वह पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म कहलाता है। जैसेनारक, मनुष्य, देव तथा जलचर, स्थलचर, खेचर, उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प के रूप में तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय (गाय, भैंस, मछली, चिड़िया, सर्प, नेवला मेढ़क आदि)। इस प्रकार जातिनामकर्म समस्त संसारी जीवों को पाँच भागों-जातियों में विभक्त कर देता है। वह एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की अलग-अलग पहचान भी कराता है। जैसे-पानी में तैर रही मछली को देखकर तुरंत पहचान लिया जाता है कि वह इन पाँच प्रकार की कर्म-प्रकृतियों में से पंचेन्द्रिय (जलचर) जातिकर्म का फल है।२
(३) शरीरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव औदारिक आदि शरीर प्राप्त करता है, उसे शरीरनामकर्म कहते हैं। अथवा जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि हो सके, जो सुख-दुःख भोगने का स्थान है, और जो औदारिक, वैक्रियक आदि वर्गणाओं से बनता है, वह शरीर कहलाता है। अथवा जो उत्पत्ति-समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है तथा जो शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त १. (क) स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः-श्रोताणि। (ख) पंचेन्द्रियाणि ।
-तत्त्वार्थसूत्र २/२0, १५ (ग) कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैक-वृद्धानि ।।
-तत्त्वार्थसूत्र २/२४ (घ) प्रज्ञापना पद १५, उ. १, २ (ङ) पृथिव्यप्तेजो वायु-वनस्पतयः स्थावराः।
-तत्त्वार्य0 २/१३ (च) जिससे इन्द्र-आत्मा पहचाना जाए, उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे-एकेन्द्रिय जीव स्पर्शेन्द्रिय से पहचाने जाते हैं।
-ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१७ २. (क) ज्ञान का अमृत, पृ. ३१६, ३१७
(ख) कर्म-प्रकृति से, पृ. ५७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org