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३५८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
पिछले लेख में हम नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों के ४२, ६७, ९३ और कथंचित् १०३ भेदों की गणना कर आये हैं। अब उनके स्वरूप और प्रकार तथा स्वभाव का शास्त्रोक्त वर्णन कर रहे हैं।' नामकर्म की समस्त उत्तर-प्रकृतियों का लक्षण, स्वरूप और स्वभाव
(१) गतिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य, तिर्यञ्च आदि एक पर्याय से दूसरी पर्याय को प्राप्त हो अथवा जिसके उदय से आत्मा मनुष्यादि गतियों में जाए-गमन करे, या नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव की पर्याय को प्राप्त करे, वह गतिनामकर्म है। अथवा जो कर्मविशेष सुख-दुःख भोगने के योग्य पर्याय-विशेषरूप देवादि चार गतियों को प्राप्त कराये, वह कर्म गतिनामकर्म कहलाता है। अथवा जिस स्थान से जीव (मरकर) एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, वह स्थान गति. कहलाता है।
गतिनामकर्म के चार भेद हैं-(१) नरकगति, (२) तिर्यञ्चगति, (३) मनुष्यगति और (४) देवगति। जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी पर्याय प्राप्त हो कि वह नारक कहलाए, अथवा जिसके उदय से जीव नारक के रूप में पहचाना जाए, अथवा नारकी का आकार या नरकगति प्राप्त हो, उसे नरकगति नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था, पर्याय या गति प्राप्त हो, जिससे वह तिर्यञ्च है, ऐसा कहलाए या तिर्यञ्च रूप में पहचाना जाए, वह तिर्यञ्चगति नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव को मनुष्य पर्याय/मनुष्यगति या ऐसी अवस्था प्राप्त हो, जिससे वह 'मनुष्य है' ऐसा कहलाए या मनुष्यरूप में पहचाना जाए, वह मनुष्यगति नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी पर्याय/अवस्था या गति प्राप्त हो, जिससे वह देव है ऐसा कहा जाए या देवरूप में पहचाना जाए, उसे देवगतिकर्म कहते हैं।
इस प्रकार संसार में परिभ्रमण करने वाला प्राणी पूर्वोक्त चार गतियों में से किसी एक गति में जाता है, फिर उस गति का आयुष्य पूर्ण करके दूसरी गति में कर्मानुसार जाता है। यों चार गतियाँ हैं।३
‘गति' पारिभाषिक शब्द है। यह प्रथम पिण्डप्रकृति है। अपने सम्मुख कर्मचन्द नाम का मनुष्य खड़ा है, वह मनुष्य बना, यह पूर्वोक्त चार गतियों में से मनुष्यगतिनामकर्म का फल है। इसी प्रकार अन्य गतियों के विषय में समझना। प्रत्येक गति, जीव की १. देखें, कर्मग्रन्थ भा. ६ की प्रस्तावना (पं. फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री) २. (क) तच्च गम्यते-तथाविध-कर्म-सचिवै वैः प्राप्यते इति गतिः नारकादिपरिणतिः तद्विपाकवेधा कर्मप्रकृतिरियं गतिः।
-प्रथम कर्मग्रन्थ टीका २४ (ख) यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः।
-सर्वार्थसिद्धि ८/११ (ग) नेरइय-तिरिय-माणुसा-देवगइ त्ति हवे गई चउधा ।
-कर्मप्रकृति ९७ (घ) निरय-तिरि-नर-सुरगई ।
-कर्मग्रन्थ १/३३ ३. कर्म-प्रकृति से, पृ. ५४-५५
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