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= उत्तर-प्रकृतिबन्ध :E = प्रकार, स्वरूप और कारण-५=
मानव या संसार का कोई भी जीव शरीर से पथक नहीं। संसारी जीव के साथ जहाँ आत्मा है, वहाँ साथ-साथ शरीर भी है। एक भव में शरीर नष्ट (मृत) हो जाता है, तब दूसरे भव में जाने के समय आत्मा के साथ-साथ तैजस-कार्मण शरीर (सूक्ष्म शरीर) अवश्य रहता है। यह शरीर तभी पूर्णरूप से छूटता है, जब जीक आठों ही कर्मों से मुक्त, सिद्ध, बुद्ध परमात्मा हो जाता है। शरीर रहेगा, तब तक कर्म रहता है,
और कर्म रहता है, तब तक शरीर पुनः पुनः धारण करना पड़ता है। जब मनुष्य कर्मोपाधिजन्य स्थूल शरीर को प्राप्त करता है, तब शरीर के साथ-साथ गति, जाति, इन्द्रियाँ, मन, अंगोपांग और उनसे सम्बद्ध शुभ-अशुभ संस्थान, संहनन, बन्धन, निर्माण, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप-रंग (वर्ण), आनुपूर्वी, अगुरुलघुत्व, शुभ-अशुभ चाल-ढाल एवं सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेयता-अनादेयता, यशःकीर्ति, अपयश आदि तथा उसी शरीर से सम्बन्धित गोत्र, आयु (स्थिति) एवं अच्छी-बुरी दशा, परिस्थिति, सुख-दुःख, सुविधा- असुविधा, तीर्थंकरत्व आदि अनेकों बातें पूर्वोपार्जित कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं। प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में कर्मों की मूल प्रकृतियों तथा उनके स्वभाव और कारणों का संक्षेप में निरूपण किया गया है। परन्तु मूल-प्रकृतियों के साथ-साथ उन मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ और उनका स्वरूप एवं बन्ध-कारण नहीं बताया जाता तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित सारे प्रश्न अधूरे रहते। परन्तु कर्म-विज्ञान ने उत्तुर प्रकृतियों का स्वरूप और कारण बताकर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि समस्त जीवों को शरीर और शरीर से सम्बद्ध जो भी वस्तुएं मिली हैं, वे किसी तथाकथित आकाश में स्थित परमात्मा के द्वारा नहीं, अपितु (निश्चयरूप से) अपनी शुद्ध आत्मा के द्वारा कृतकमों के द्वारा प्राप्त हैं। जीव यदि इन कर्मों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करे तो अवश्य ही इन कर्मों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध, बुद्ध हो सकता है।
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