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३४८ कर्म - विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
उसी प्रकार नामकर्म भी प्राणी को प्राण धारण करा कर, नये-नये नाम, रूप, आकार आदि धारण कराता है, उनको नाना प्रकार की आकृति, प्रकृति एवं व्यक्तित्व प्रदान करता है; साथ ही, सुरूपता - कुरूपता, यश-अपयश, सुस्वर - दुःस्वर आदि नाना स्वरूप धारण कराता है। नाम और रूप की समस्त विविधताएँ नामकर्म में समाविष्ट होती हैं। 'प्रवचनसार' में कहा गया है - " नामकर्म आत्मा के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देवरूप प्रदान करता है । '१
नामकर्म की दो मुख्य उत्तर-प्रकृतियाँ : शुभनाम, अशुभनाम
नामकर्म की मुख्य उत्तर- प्रकृतियाँ दो हैं? - शुभनाम और अशुभनाम | देखा जाता है कि किसी मनुष्य का शरीर कोयले जैसा काला कलूटा, कुरूप, कुबड़ा और बेडौल होता है और किसी का शरीर गुलाब के फूल जैसा सुरूप, सुन्दर, गोरा और सुडौल होता है, तथा सलौना, प्रभावशाली एवं चित्ताकर्षक होता है। यह दो प्रकार का अन्तर क्रमशः अशुभनाम और शुभनाम के कारण होता है । शरीर की तरह शरीर के अंगोपांग, निर्माण, संघात, संहनन, स्पर्श, वर्ण, गन्ध की तरह जीव के गति, जाति, स्वर, व्यक्तित्व, आदेयता, सौभाग्य, शुभ, पर्याप्त, यश, आदि सबमें प्रायः शुभ और अशुभ ये दो-दो परस्पर विरोधी प्रकार होते हैं। उन्हीं का वर्गीकरण शुभनाम कर्म और अशुभनाम कर्म में हो जाता है। शुभ प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं और अशुभ प्रकृतियाँ पापरूप हैं।३ इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों के मूलभूत पुण्य और पाप के रूप में हम 'पाप और पुण्य प्रकृतियों का बन्ध' शीर्षक निबन्ध में कर चुके हैं । ४
शुभनामकर्म-बन्ध के कारण
यद्यपि नामकर्म के इन दो भेदों के बन्ध के कारण हम संक्षेप में बता आए हैं, परन्तु इनका विशेष स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होने से पुनः उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं। शुभनामकर्म चार प्रकार से बांधा जाता है - ( १ ) काया की सरलता - काया के द्वारा
१. (क) नमयत्यात्मानं, नम्यतेऽनेनेति वा नाम।
(ख) विचित्रपर्यायैर्नमयति - परिणमयति यज्जीवे तन्नाम । (ग) कर्मप्रकृति (आचार्य जयन्तसेनजी अ.) से, पृ. ५१ (घ) नाना मिनोति निर्वर्त्तयतीति नाम ।
(ङ) गदि आदि जीवभेद, देहादी पोग्गलाण भेदं च । गदि अंतर - परिणमने, करेदि णामं अणेगविहं ॥
(च) सर्वार्थसिद्धि ८ / ४, पृ. ३८१
(छ) प्रवचनसार गा. २ /२५
२. नामे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं. सुभणामे चेव असुभणामे चेव ।
३. शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य ।
४. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३३४
(ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, २८५
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- सर्वार्थसिद्धि ८/४, पृ. ३८१ - स्थानांग, टीका २/४/१०५
- धवला ६/१/९, सू. 90
- गो. कर्मकाण्ड गा. १२
-स्थानांग स्था. २/१०५ - तत्त्वार्थसूत्र ६/३-४
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