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उत्तर-प्रकृति-बन्ध : E प्रकार, स्वरूप और कारण-४ =
आठ कर्म-प्रकृतियों में चार मूल कर्म-प्रकृतियों से सम्बन्धित उत्तर-कर्म-प्रकृतिर के बन्ध की विवेचना की जा चुकी है। अब शेष चार मूल प्रकृतियों की उत्त कर्म-प्रकृतियों का विश्लेषण किया जा रहा है।
- आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ : प्रकार, स्वरूप और बन्ध कार जिसके कारण जीव भव-विशेष में, गति विशेष में, योनि विशेष में तथा निया शरीर में नियत कालावधि तक रुका रहे, उसे आयुकर्म कहते हैं। जिस प्रका कारागृह में कैदी अमुक अवधि तक बंद रहता है, उसी प्रकार जो कर्म आत्मा कं विभिन्न शरीरों, गतियों, योनि-विशेषों में कैद रखता है, वह आयुष्यकर्म है। जीवों वे जीवन-अस्तित्व का नियामक आयुकर्म है। इस कर्म का अस्तित्व रहने तक जीव लोव व्यवहार में जीवित और क्षय होने पर मृत कहलाता है। अथवा जिस कर्म के प्रभाव से जीव एक गति, भव, योनि और शरीर को छोड़कर दूसरी गति, भव, योनि और शरीर ग्रहण करता है, पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करता रहता है, वह आयुकर्म है आयुष्यकर्म निश्चय करता है कि किस आत्मा को किस शरीर में कितनी अवधि तक रहना है।
आयुष्यकर्म का स्वभाव और कार्य . आयुकर्म का कार्य जीव को सुख या दुःख देना नहीं है, अपितु नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि गतियों और योनियों में से किसी एक नियत गति तथा योनि में
१. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३०६
(ख) कर्म-प्रकृति से, पृ. ४४ (ग) तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि, राजवर्तिक ६/१४ (घ) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७२
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