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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ ३४३ उपर्युक्त बातें समझाई। फिर चुपके से उसके हाथ में एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की थैली देकर कहा-"इसे इसी समय किसी जगह गाड़ दो। किसी से कहना मत।" . पति-पत्नी में यह मंत्रणा हो रही थी, उसी दौरान निकृति आ गई। उसने सास-ससुर की गुप्त बात सुन ली। तुरंत ही उसने अपनी देवरानी संचया को यह बात कह दी। दोनों सास से गाड़े हुए धन का पता लगाने हेतु उसकी सेवा करने लगीं। अपनी दोनों बहुरानियों को इस प्रकार सेवा में जुटे देख सास को प्रसन्नता हुई। समय पाकर दोनों ने अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी, झूठे आंसू बहाए। इस प्रकार सेवा के दंभ से सास का मन जीत लिया। सास ने भोलेभाव से यह सोच कर कि मरने के बाद स्वर्ण मोहरें मेरे किस काम की, दोनों बहुओं को गड़े हुए धन की जगह बता दी। दोनों को यही चाहिये था। ___ एक दिन सास कहीं बाहर गई हुई थी। दोनों बहुओं ने वह जगह खोद कर सोने की मोहरें निकाल ली और अन्यत्र गाड़ दीं। अब धीरे-धीरे सास की सेवा बंद हो गई। अग्निशिखा ने रुद्रदेव के समक्ष अपना संदेह प्रगट किया। यह सुनते ही रुद्रदेव ने कोपायमान होकर अग्निशिखा पर तीक्ष्ण शस्त्र से प्रहार किया। अग्निशिखा क्रोधावेश में मर कर सर्पिणी बनी और उसी घर में घूमने लगी। इधर निकृति ने सोचा-मेहनत मैंने की, अतः आधा हिस्सा संचया को क्यों दूँ ? उसने लड्डू में विष मिलाकर संचया को खिला दिये। वह मर कर कुतिया बनी। निकृति ज्यों ही स्वर्ण मुद्राएँ लेने हेतु अंधेरे कमरे में हाथ से टटोलने लगी, त्योंही सर्पिणी ने काट खाया। वह मर कर नेवला बनी। इस प्रकार अग्निशिखा, संचया और निकृति तीनों को माया के कारण तिर्यञ्चयोनि प्राप्त हुई। मायाकषाय के कारण पूरे घर की तबाही हो गई। यह हैगूढमाया के कारण तिर्यञ्चायुबन्ध का दुष्फल!'
पूज्यपाद ने धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर प्रचार करना, शीलरहित जीवनयापन करना, मृत्यु के समय नील-कापोत-लेश्या एवं आर्तध्यान करना इन चारों को तिर्यञ्चायु बन्ध का कारण बताया है।२
मनुष्यायुकर्म का बन्ध-जिस कर्म के उदय से मनुष्यगति में जन्म हो, अथवा जिस कर्म के उदय से जीव को अमुक समय तक मनुष्यभव में रहना पड़े, उसे मनुष्यायुकर्म कहते हैं। स्वयं के पास धन हो या न हो, दान देने की रुचि सतत जागृत रहे तो वह मनुष्यायुकर्म बांधता है। संगम को दान देने की उत्कट रुचि थी, मासिक उपवासी मुनि को दान देने से वह मनुष्यायु बांध कर शालिभद्र बना।३ ।
१. (क) रे कर्म तेरी गति न्यारी से भावांशग्रहण, पृ. १४१-१४२ २. सर्वार्थसिद्धि ६/१७ . ३. (क) कर्म-प्रकृति से, पृ. ५० (ख) चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताते कम पगरेंति, त जहा-पगतिभद्दत्ताते, पगति विणीयताए, साणुक्कोसयाते, अमच्छरिताते ।
-ठाणांग, स्था. ४, उ. ४, सू. ३७३ टीका (ग) अल्पारम्भ-परिग्रहत्वं स्वभाव-मार्दवाऽर्जवं च मानुषस्यायुषः। -तत्त्वार्थसूत्र ६/१८ विवेचन (घ) तत्त्वार्य-सूत्र, विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. २८१
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