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३२८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नोकषाय-वेदनीय : प्रकृतियाँ, लक्षण, स्वभाव और कार्य ___ यह चारित्र-मोहनीय का दूसरा प्रकार है। इसे नोकषाय-वेदनीय अथवा नोकषाय-मोहनीय भी कहते हैं। 'नो' का अर्थ ईषत्, अल्प अथवा सहायक है। अतः नोकषाय का अर्थ हुआ-अल्प अथवा छोटे कषाय अथवा सहायक कषाय। वस्तुतः नो-कषाय प्रधान कषायों के साथ उत्पन्न होते हैं, और उन्हें उत्तेजित भी करते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान में इन्हें मूलप्रवृत्ति (इन्सटिंक्ट्स -Instincts) कहा है। कर्मग्रन्थ के अनुसार-जो कषाय तो न हों, किन्तु कषाय के सहवर्ती हों, कषाय के उदय के साथ जिनका उदय होता हो, कषायों को उत्पन्न करने में, तथा उद्दीपन करने में जो सहायक हों, उन्हें 'नोकषाय' कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव हास्यादि नोकषाय का वेदन करता है, उसे नोकषाय-वेदनीय कहते हैं।
नोकषाय वेदनीय के भेद-नोकषाय के ९ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद और (९) नपुंसकवेद। उत्तराध्ययन सूत्र में नोकषाय को 'सप्तविध' या 'नवविध' कहा गया है, वह अभेद (तीनों वेदों का एक में समावेश होने की) विवक्षा से सात और भेदविवक्षा (तीनों वेदों को अलग-अलग मानने से) नौ भेद समझने चाहिए। साधारणतया शास्त्रों में नोकषाय के नौ भेद की प्रसिद्ध हैं।
नौ भेदों के लक्षण-(१) हास्य-जिस कर्म के उदय से सकारण (भांड, विदूषक आदि की चेष्टाएँ देखकर या अकारण (मानसिक विचार, तथा किसी का मजाक उड़ाने, मश्करी करने या ठहाका मार कर हंसने की नीयत से) हंसी आए उसे हास्य-मोहनीय कर्म कहते हैं। अथवा हास्योत्पादक कर्म हास्यमोहनीय कहलाता है।
(२-३) रति, अरति-जिस कर्म के उदय से सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति सकारण या अकारण रागभाव, प्रीति, आसक्ति, रुचि या रति भावना का प्रादुर्भाव हो, उसे रति और इसके विपरीत किन्हीं सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति सकारण या अकारण द्वेषभाव, घृणा, अप्रीति, अरुचि, नफरत, अरति आदि भावों का प्रादुर्भाव हो, उसे अरति मोहनीय कर्म कहते हैं। अथवा सांसारिकता की ओर अभिरुचि और संयम के प्रति अरुचि भी रति-अरति है।
१.(क) तत्त्वार्थसूत्र ८/१० विवेचन (उपाध्याय केवलमुनिजी) से पृ. ३७२
(ख) स्थानांग स्थान ९/५०० (ग) प्रज्ञापना २३/२ (घ) कर्मप्रकृति ६२ (ङ) कषाय-सहवर्तित्वात् कषाय-प्रेरणादपि। हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषाय-कषायता ॥
-प्रथम कर्मग्रन्य टीका १७ (च) जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसायं वेदयदि त णोकसाय-वेदणीय णाम। -धवला १३/५
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