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३२४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'चतुष्क' कहने से चारों ही कषायों का ग्रहण हो . जाता है, इसे सर्वत्र समझ लेना चाहिए।
(१) अनन्तानुबन्धी-चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण-जिन क्रोध, मान, माया और लोभ के परिणामों से आत्मा को अनन्त संसार का बन्ध होता है, उन्हें अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि कहते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि चतुष्क के परिणामों को बताने के लिए कर्मग्रन्थ आदि में क्रमशः पर्वतभेद, पाषाण-स्तम्भ, बंशमूल-ग्रन्थी एवं कृमिराग (किरमिची रंग) की उपमा दी गई है। ___ अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत में पड़ी हुई दरार के समान है। जैसे, पर्वत के फटने से पड़ी हुई दरार का जुड़ना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध अथक परिश्रम और अनेक उपाय करने पर भी शान्त नहीं हो पाता। ऐसे कठोर वचन, जिंदगी भर परस्पर वैर, अबोला, हत्या का वैर, इत्यादि किसी भी कारण से उत्पन्न क्रोध ऐसा भयंकर होता है, जो एक जिंदगी में नहीं, अनेक जन्मों तक वैर-परम्परा के रूप में चलता है। जैसे-अग्निशर्मा तापस का गुणसेन राजा के साथ चला।
अनन्तानुबन्धी मान-पाषाण के स्तम्भ (खम्भे) के समान है। अथवा वज्रस्तम्भ के समान है। ऐसा स्तम्भ टूट जाता है, मगर किसी भी तरह नमता नहीं, वैसे ही यह मान भी विगलित नहीं हो पाता। इस प्रकार के अभिमान वाले की अकड़, अहमिन्द्रता, अहंता ऐसी कठोर होती है कि जिंदगीभर तक जरा भी नम्रता नहीं आती, यथापूर्व चालू रहती है। __ अनन्तानुबन्धी माया-उसी प्रकार वक्र होती है, जैसे वांस के मूल की गांठ। जैसे यह गांठ किसी भी उपाय से सीधी या सरल नहीं हो पाती, वैसे ही इस प्रकार की माया (कपट) जिंदगीभर बनी रहती है, किसी भी उपाय से उसमें सरलता नहीं आती। ___ अनन्तानुबन्धी लोभ-इसे किरमिची रंग की उपमा दी गई है। जैसे किरमिची रंग लग जाने पर हजार बार वस्त्र को धोने पर, चाहे जितना साबुन लगाने पर भी छूटता नहीं, वैसे ही अनन्तानुबन्धी लोभ का परिणाम उपाय करने पर भी नहीं छूटता। अनन्तानुबन्धी लोभ का धारक मनोज्ञ, अभीष्ट वस्तु के प्रति स्वामित्व, ममत्व, लोभ या लालसा जिंदगी भर छोड़ता नहीं।
अनन्तानुबन्धी कषाय एक जन्म तक ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों तक भी साथ-साथ चलती हैं। अर्थात्-इनकी वासना संख्यात, असंख्यात और अनन्तभवों तक भी रह सकती है। और इनके सद्भाव में नरकगति के योग्य कर्मों का बन्ध होता है।
१. (क) ज्ञान का अमृत से पृ. २९३
(ख) कर्म प्रकृति से पृ. ३५ ।। (ग) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. १२३ से १२५ (घ) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग विवेचन से गा. १७ से २० तक, पृ. ८१ से ८९
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