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३०८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
कर्मग्रन्थोक्त तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्वमोहनीय
कर्मग्रन्थ में सम्यक्त्वमोहनीय का लक्षण इस प्रकार है- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आनव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ तत्त्वों पर जिस कर्म से जीव श्रद्धा-रुचि करता है, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। उस सम्यक्त्व के क्षायिक आदि बहुत-से भेद होते हैं। अर्थात् - जिस कर्म के उदय से आत्मा को जीवादि नौ तत्त्वों पर श्रद्धा होती है, उसे सम्यक्त्व - मोहनीय कहते हैं। इसे सम्यक्त्व कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चश्मा आँखों का आच्छादक होने पर भी देखने में रुकावट नहीं. डालता, उसी प्रकार सम्यक्त्व - मोहनीय कर्म आवरणरूप होने पर भी आत्मा को तत्त्वार्थ-श्रद्धान करने में व्याधान नहीं पहुँचाता है।
नौ तत्त्वों के नाम और स्वरूप तथा प्रकार
ब
नौ तत्त्व ये हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आनव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। संक्षेप में उनका स्वरूप इस प्रकार है - ( 9 ) जीव (आत्मा) तत्व - निश्चयनय से ‘समयसार' और 'आचारांग में आत्मा (जीव ) का लक्षण किया है - जो वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श - रहित हो, अव्यक्त ( अमूर्त - इन्द्रिय- अगोचर ) हो, चेतनागुण वाला और शब्द-रहित हो, उसे जीव (आत्मा) जानो। उसका अपना कोई आकार न होने से, वह अनिर्दिष्ट आकार वाला है। फिर भी स्व-संवेदन के बल से नित्य आत्मा का प्रत्यक्ष होने पर आत्मा केवल अनुमेयमात्र है। ' 'पंचास्तिकाय' में संसारी जीव के उपाधिसहित और उपाधि-रहित स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है - " यह जीव नामक पदार्थ चेतयित (चेतना वाला) है, उपयोग से विशिष्ट (युक्त) है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, अपने शरीर -मात्र- प्रमाण वाला है, मूर्त्त नहीं है, किन्तु कर्म से संयुक्त है। "
जीवत्व - गुण की व्याख्या करते हुए कहा गया है - " जो प्राणों से ( प्राण धारण करके) वर्तमान में जीता है, भविष्य में जियेगा और अतीतकाल में जिया था, वह जीव है । " अर्थात् जो द्रव्य-भाव-प्राणों को धारण करे, वह जीव है। प्राण के दो भेद हैं- द्रव्य-प्राण और भाव-प्राण। इनमें से द्रव्यप्राण के दस भेद हैं- पांच इन्द्रियाँ, तीन बल (मन-वचन-कायबल), उच्छ्वास- निःश्वास और आयु। ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार आत्मा के स्वाभाविक गुण भावप्राण कहलाते हैं। भावप्राण सिद्ध जीवों में भी होते
हैं।
आसवी संवरो निज्जरा बंधो
- स्थानांग स्थान ९ सू. ६६५
(ख) नौ तत्त्वों का विशेष विशद वर्णन देवेन्द्रसूरिरचित नवतत्व प्रकरण स्वोपज्ञटीका गा. १५ में
देखिए ।
-सं.
१. (क) नव सब्भाव - पयत्था पण्णत्ते, तं. - जीवा अजीवा पुण्णं पावो मोक्खो ।
(ग) अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदनागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीयमणिद्दिट्ठस्संठाणं ॥ (घ) आचारांग श्रु. १, अ. ६ उ. १/३३१ से ३३३
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- समयसार गा. ४९
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