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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३११ इन नौ तत्त्वों में जीव (आत्मा) के उत्कर्ष-अपकर्ष की, उत्क्रान्ति-अपक्रान्ति की, सृष्टि कर्तृत्ववाद की, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म की, इहलोक-परलोक की, कर्म के बन्ध-मोक्ष, आसव-संवर की, जड़-चेतन के धर्मों की; ऐसे अनेक जीवन सम्बन्धी-तत्वों की विचारणा आ जाती है। इसीलिए नौ तत्त्वों का बोध हो, इन्हें जानना रुचिकर लगे, उनमें हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान हो, श्रद्धान हो, तभी उसे सम्यक्त्व कहा गया
- सम्यक्त्व : उसके भेद तथा उनका लक्षण पूर्वोक्त जीवादि नौ तत्त्वों के प्रति श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व है। वैसे प्राणियों की विभिन्न रुचि, दृष्टि, श्रद्धा और निष्ठा के अनुसार सम्यक्त्व में तारतम्य के अनुसार कई भेद होते हैं। किसी अपेक्षा से सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं-व्यवहार सम्यक्त्व और निश्चय-सम्यक्त्व। संक्षेप में इनके लक्षण इस प्रकार हैं-व्यवहार सम्यक्त्व-कुदेव, कुगुरु और कुमार्ग (कुधर्म) को छोड़कर सुगुरु, सुदेव और सुमार्ग (सद्धर्म) का स्वीकार करना, इनकी श्रद्धा-भक्ति करना व्यवहार-सम्यक्त्व है। निश्चय सम्यक्त्व-जीवादि तत्त्व जिस रूप में आप्त पुरुषों (सर्वज्ञों) द्वारा प्ररूपित हैं, उन्हें यथार्थरूप से मानना और उन तत्त्वों के अर्थ पर श्रद्धान करना निश्चय सम्यक्त्व है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप-स्वभाव पर श्रद्धा करना भी निश्चय सम्यक्त्व है।
अन्य अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के-क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, सास्वादन सम्यक्त्व तथा कारक, रोचक और दीपक सम्यक्त्व इत्यादि भेद हैं। इनके लक्षण, क्रमशः इस प्रकार हैं-क्षायिक सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, इन तीन प्रकृतियों के क्षय होने पर आत्मा में जो परिणाम-विशेष होता है, उसे क्षायिक-सम्यक्त्व कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व-दर्शनमोहनीय की उक्त तीनों कर्म-प्रकृतियों के उपशम से आत्मा में जो परिणाम-विशेष होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षय तथा उपशम से तथा सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में होने वाले परिणाम को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। उदय में आए हुए मिथ्यात्व के पुद्गलों का क्षय तथा जो उदय को प्राप्त नहीं हुए हैं, उन पुद्गलों का उपशम, ये दोनों मिलकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। यहाँ जो मिथ्यात्व का उदय कहा गया है, वह प्रदेशोदय की अपेक्षा से समझना चाहिए, रसोदय की अपेक्षा से नहीं। औपशमिक सम्यक्त्व में तो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का रसोदय और प्रदेशोदय दोनों प्रकार का उदय नहीं होता है। कर्म-सिद्धान्त में प्रदेशोदय को ही उदयाभावी क्षय कहते हैं। जिसके उदय से आत्मा पर कुछ भी असर नहीं होता, वह प्रदेशोदय है और जिसका उदय आत्मा पर प्रभाव डालता है, वह रसोदय है।
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