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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३१९
अनन्तानुबन्धी कषाय : स्वरूप, स्वभाव, कार्य अनन्तानुबन्धी-जो कषायभाव अनन्त-संसार का अनुबन्ध कराने वाले हैं, उन्हें अनन्तानुबन्धी कहते हैं। अथवा जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है, उसे अनन्तानुबन्धी कहते हैं। आशय यह है कि यह कषाय आत्मा के साथ अनन्तकाल तक कर्मों का अनुबन्ध कराता है। अर्थात्-यह आत्मा के साथ अनन्तकाल से लगा हुआ है और सम्यक्त्व प्राप्त न हो तो अनन्तकाल तक लगा रहता है। चूंकि मिथ्यात्व अनन्त संसार का कारण है, इसलिए मिथ्यादर्शन को अनन्त कहते हैं। अतः जो कषाय उसका (अनन्त मिथ्यात्व का) अनुबन्धी है, इसलिए भी इसे अनन्तानुबन्धी कहा जाता है। अथवा जिन क्रोध, मान, माया और लोभ के साथ जीव अनन्तभवों में भ्रमण करता है, उन्हें अनन्तानुबन्धी कहा जाता है। यह आत्मा के स्व-संवेदन तथा स्वानुभूति में बाधक बनता है। इसी अपेक्षा से यह सम्यक्त्व का घातक है, मिथ्यात्व का परिपोषक है। क्योंकि निज चैतन्य तत्त्व के अतिरिक्त अन्य सजीव-निर्जीव परपदार्थों (परभावों) तथा विभावों में अहंत्व-ममत्व, कर्तृत्व-भोक्तृत्व या प्रियत्व-अप्रियत्व भावों की दृढ़ ग्रन्थि ही मिथ्यात्व का रूप है। जब तक श्रद्धा-प्रतीति-रुचि या दृष्टि मिथ्या है, तब तक उसके साथ ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या ही होगा। इसीलिए इसका एक लक्षण यह भी किया गया-जो जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करता है, उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। इस कषाय के उदय के कारण सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता, पहले उत्पन्न हुआ हो तो भी उसका पतन (नाश) हो जाता है।' अनन्तानुबन्धी वर्ग के चारों कषाय अत्यन्त गाढ़ होते हैं और जीव के साथ गहरे प्रविष्ट हो जाते हैं, ये .परभाव में सतत रमण कराने वाले होते हैं, स्वभाव में रमण नहीं होने देते। इसीलिए सम्यक्त्व प्रकट होने में पहली शर्त रखी गई है, दर्शनमोहनीय की त्रिपुटी, और अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्त्व का सूर्योदय हो सकता है, उससे पूर्व तक मिथ्यात्व का घोर घनान्धकार होता है। इन चारों अनन्तानुबन्धी कषायों में कोई एक कषाय विद्यमान रहता है, तब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति हर्गिज नहीं होती। अनन्तानुबन्धी कषाय यावज्जीवन तक छूटता नहीं है। बल्कि जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ३७० (ख) कर्मप्रकृति से पृ. ३१ (ग) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. १२२ (घ) तथाऽप्यवश्य-अनन्तसंसार-मौलकारण-मिथ्यात्योदयाक्षेपकत्यादेषामे यानन्तानुबन्धित्यव्यपदेशः।
-प्रथम कर्मग्रन्थ टीका २७ (ङ) अनन्तसंसार-कारणत्वात् अनन्तमिथ्यात्व अनन्तभव-संस्कारकाले वा अनुबध्नन्ति
___ संघट्टयन्तीत्यनन्तानुबन्धितम्। न इति निरुक्ति सामर्थ्यात्। -गोम्मटसार (जी.) २८३ . (च) अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शन नोत्पद्यते, पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति।
__-तत्त्वार्थसूत्र ८/१0 भाष्य
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