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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३१७ अतः कषायमोहनीय वह है, जिससे संसार-परिभ्रमण की वृद्धि हो, क्योंकि कषाय ही कर्मबन्ध का विशिष्ट हेतु है। कषाय के कारण ही कर्मों का स्थितिबन्ध और रसबन्ध होता है और जब तक बन्ध है, तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता। मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं। कषाय का विनाशक रूप
वस्तुतः कषाय संसार के साथ तादात्म्य कराने, एकत्व कराने में, तथा आत्मधर्म एवं आत्मा के मूल गुणों से दूर रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग अदा करते हैं। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
क्रोधादि चारों कषाय संसाररूपी वृक्ष (पुनः पुनः जन्म-मरणरूपी तरु) के मूल का सिंचन करते हैं। क्योंकि रसबन्ध (कर्मों का अनुभागबन्ध) का सबसे बड़ा आधार अगर कोई है तो कषाय ही हैं। कषायों की तरतमता पर कर्म की तीव्रता-मन्दता निर्भर है। और कर्मों के अत्यधिक संचय हो जाने पर जन्म-मरण अवश्यम्भावी है। क्रोधादि चोरों कषाय प्राणियों के जीवन का कितना अनिष्ट करते हैं? यह दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है-"क्रोध प्रीति का नाश कर देता है, मान विनय का और माया (कपट) मित्रता का नाम करती है, किन्तु लोभ तो समस्त गुणों का विनाश करने वाला है।" वाल्मीकि रामायण में भी कहा है-क्रुद्ध व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं कर डालता? क्रोधी गुरुजनों का भी वध कर डालता है।२
कषाय के चार प्रकार : स्वरूप और स्वभाव - यों तो कषायवेदनीय की सोलह और नोकषाय-वेदनीय की नौ, दोनों मिल कर पच्चीस उत्तर-प्रकृतियाँ चारित्र-मोहनीय की बताई गई हैं। परन्तु यहाँ मूल रूप में कषाय के चार भेद और उनकी तीव्रता-मन्दता के आधार पर प्रत्येक के चार-चार भेद बता कर कषाय के कुल १६ भेद प्ररूपित किये गए हैं। कषाय के मूल चार भेद ये हैं-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभा . क्रोध-समभाव या प्रशमभाव को भूल कर आक्रोश से भर जाना, दूसरे पर रोष करना, आवेश में आ जाना; अपने और दूसरे के अपकार या उपघात आदि करने के क्रूर परिणाम लाना क्रोध कहलाता है। कोप, तर्जना, घात आदि इसी के प्रकार हैं।
१. (क) कम्मकसो भवो वा कसमातीसि कसायातो।
कसमाययंति व जतो, गमयति कस कसायत्ति ॥ -विशेषावश्यक भाष्य गा. १२२७ (ख) चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाणि पुणब्भवस्स । -दशवकालिक ८/४0 (ग) कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय-णासणो । माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्य-विणासणो ।
-दशवैकालिक ८/३८ (घ) जैनदृष्टिए कर्म से भावांश ग्रहण, पृ. ६४ । २. क्रुद्धो पापं न कुर्यात् कः ? क्रुद्धो हन्यात् गुरूनपि । -वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड ५५/४
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