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उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३०९ ___ जीव के दो भेद हैं-सिद्ध (मुक्त) और संसारी। मुक्त जीव वे हैं, जो सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके तथा समस्त दुःखों से रहित होकर ज्ञान-दर्शनादि भाव-प्राणों से युक्त हैं। संसारी जीव वे हैं, जो अपने यथायोग्य द्रव्यप्राणों और ज्ञानादि भावप्राणों से युक्त होकर नरकादि-चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। जीव तत्त्व के १४ भेद हैं। ____ अजीवतत्त्व-जिसमें प्राण न हों, चेतना न हो, अर्थात्-जड़ हो, उसे अजीव कहते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, ये अजीव हैं। इनमें पुद्गलास्तिकय रूपी है, अर्थात्-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं, शेष चारों अरूपी हैं। अजीव तत्त्व के भी १४ भेद हैं।
पुण्यतत्त्व-जिसके उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है, उसे पुण्य कहते हैं। पुण्य दो प्रकार का है-द्रव्यपुण्य, भावपुण्य। जिस कर्म के उदय से जीव को सुखानुभव (सुखोपभोग) होता है, उसे द्रव्य पुण्य तथा जीव के दया, करुणा, दान, शुभभावना आदि शुभ परिणामों (अध्यवसायों) को भावपुण्य कहते हैं। पुण्य शुभयोग से बंधता है। यह शुभ प्रकृतिरूप है। पुण्य-प्रकृति के ४२ भेद हैं।
पापतत्त्व-जिसके उदय से दुःख, मनस्ताप एवं कष्ट का अनुभव हो, उसे पाप कहते हैं। पाप के दो प्रकार हैं-द्रव्यपाप और भावपाप। जिस कर्म के उदय से जीव दुःख का अनुभव करता है, वह द्रव्यपाप है, तथा जीव का अशुभ परिणाम भाव-पाप है। पाप अशुभ- प्रकृति रूप है और यह बंधता भी अशुभ योग से है। पाप प्रकृति के ६२ भेद हैं। . आम्नवतत्त्व-शुभाशुभ कर्मों के आगमनद्वार को आनव कहते हैं। आस्रव के भी दो प्रकार हैं-शुभ आस्रव और अशुभ-आम्रव। शुभाम्नव को पुण्य और अशुभ-आस्रव को पाप कहा जाता है। प्रकारान्तर से आम्नव के दो रूप हैं-द्रव्यानव और भावानव। त्रिविध योगों द्वारा शुभाशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली अथवा शुभाशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रकृतियों को द्रव्यानव और कर्मों के आने के द्वार रूप जीव के शुभाशुभ परिणामों को भावानव कहते हैं। आप्नवतत्त्व के ४२ भेद हैं।२
संवरतत्त्व-आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं। आप्नव के ४२ भेद हैं। उनका जितने-जितने अंशों में निरोध होगा, उतने-उतने अंशों में संवर कहलायेगा। यह संवर (अनासव या आनव-निरोध) गुप्ति, समिति, क्षमादि धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदि से होता है। उत्तराध्ययन के अनुसार 'पंच समिति और तीन गुप्ति से युद्ध, कषायरहित, जितेन्द्रिय, अगौरव (गौरवत्रयरहित) एवं निःशल्य (तीन शल्यों से १. (क) जीवोत्ति हवदि चेदा, उवओग-विससिदो पहू कत्ता । . भोत्ता य देहमत्तो, ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥
-पंचास्तिकाय २७ (ख) जैनसिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. ६६ . (ग) कर्मग्रन्थ प्रथम गा. १५ विवेचन (मरुधर केशरीजी) पृ. ७३ २, कर्मग्रन्थ भाग प्रथम विवेचन (मरुधर केसरी जी) , पृष्ठ ७३-७४
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