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२९८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
या संन्यासी साधु भी बन गया, कठोर तपश्चरण भी करने लगा, फिर भी अन्तरंग अन्तर्मुखी होकर आत्मतत्व की ओर प्रायः नहीं झुकता । या तो त्यागी का वेश पहन लेने से या विद्वत्ता प्राप्त हो जाने से, या लच्छेदार भाषण देने की कला आ जाने से वह अपने आप को आध्यात्मिक समझ बैठता है, आत्मार्थी मानने की या प्रसिद्धि पाने की धुन लग जाती है, अथवा क्रियाकाण्डों की उत्कृष्टता या क्रियापात्रता की डींग हांक कर वह दूसरों को निम्नकोटि का, शिथिलाचारी मान कर स्वयं उच्चाचारी होने का दावा करता है, इससे अष्टविध मदों में से कई मद बढ़ जाते हैं, जो सम्यक्त्व के ही घातक बन जाते हैं। परन्तु आत्मा के परमगुण समता या शमता की ओर उसका झुकाव प्रायः नहीं होता। आडम्बर, प्रचार, प्रदर्शन और अधिकाधिक भीड़ जुटाने की लालसा बलवती हो जाती है। दर्शनमोहनीय के प्रभाव से उसका झुकाव आत्मा के तात्त्विक निरीक्षण-परीक्षण - आलोचन में न लग कर दूसरे सम्प्रदाय, पंथ, मत, मार्ग आदि की निन्दा या कटु आलोचना करने में ही अपनी शक्ति को लगाने में होता है। देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता और शास्त्रमूढ़ता तथा लोकमूढ़ता को जैनाचार्यों ने सम्यक्त्व में बाधक, मिथ्यात्व की परिपोषक मानी है। परन्तु दर्शनमोहनीय के प्रभाव से उस पर मोह का नशा ऐसा चढ़ता है कि वह प्रायः इस प्रकार का विधान करता है कि - " मेरे पन्थ, मत, सम्प्रदाय या मार्ग में आने से ही, या हमारे गुरु को मानने से ही मोक्ष होगा, अन्यथा नहीं, अन्य मत, पन्थ, मार्ग या सम्प्रदाय सब झूठे हैं, मेरा मत, पंथ, मार्ग या सम्प्रदाय ही सच्चा है।" उसकी वृत्ति प्रायः यहीं रहती है कि अधिक से अधिक अमुक जप, तप या क्रियाकाण्ड कर लूँ, जिससे लोग अधिकाधिक आकर्षित हों, प्रसिद्धि प्राप्त हो, सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, परन्तु अनाकुलतारूप आत्मिक सुख (आनन्द), आत्मचिन्तन-मनन या बिना किसी विज्ञापन के आध्यात्मिक विकास कैसे प्राप्त करूँ ? इस ओर प्रायः उसका रुझान नहीं होता। निज आत्मस्वरूप के प्रति मूर्च्छित - मूढताग्रस्त होने के कारण दर्शनमोह उस पर कब्जा कर लेता है। मिथ्या श्रद्धा रूप मोह को दर्शनमोह कहा गया, और उसकी निमित्तभूता प्रकृति को दर्शनमोहनीय कहा गया है । '
दर्शनमोहनीय के तीन भेद कैसे और क्यों ?
प्रज्ञापनासूत्र तथा कर्मग्रन्थ में दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद बताए गए हैं- (9) सम्यक्त्व - मोहनीय, (२) मिध्यात्व - मोहनीय और (३) मिश्र - मोहनीय ( सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय)। कर्मग्रन्थ में इन तीनों को क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध और अर्धशुद्ध कहा गया है।
बन्ध की अपेक्षा दर्शनमोहनीय कर्म मिथ्यात्वरूप ही है, अर्थात् आत्मा के साथ केवल मिथ्यात्व - मोहनीय रूप कर्म- पुद्गलों का बन्ध होता है, किन्तु उदय और सत्ता
१. कर्मसिद्धान्त से, पृ. ६२
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