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२९६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
नहीं; वैसे ही मिथ्यात्व की प्रबलता के कारण शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध सधर्म के प्रति रुचि नहीं होती, न ही उन पर श्रद्धा होती है, उसे उस समय रुचि और श्रद्धा होती है - चमत्कारी लौकिक और सांसारिक लाभ वाले देवों के प्रति, आडम्बर और प्रदर्शन करने वाले, भाषणबाजी से लोगों को प्रभावित तथा सांसारिक विषयभोगों में धर्म बताने वाले गुरु के प्रति तथा पुद्गलानन्द अथवा भोग-उपभोग की ओर प्रेरित करने वाले धर्म के प्रति रुचि और श्रद्धा हो, ऐसा जिस कर्म के उदय से हो, उस कर्म को दर्शनमोहनीय कहा जाता है । '
दर्शनमोहनीय का प्रभाव : अनेक रूपों में
दूसरी दृष्टि से दर्शनमोहनीय कर्म का स्वरूप ऐसा है कि वस्तु जिस प्रकार की हो, उसका तात्विक दृष्टि से यथार्थ मूल्यांकन करके, अथवा हेय, ज्ञेय, उपादेय का विश्लेषण करके, उसे वैसी ही अभ्यास से, या विश्वासपूर्वक जानना 'दर्शन' कहलाता है। ऐसा परिपूर्ण, शुद्ध दर्शन न होने दे, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से वस्तु के यथार्थ वस्तुस्वरूप का दर्शन क्यों नहीं होता ? इसके मुख्य कारण होते हैं - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, मूढ़ता आदि । जहाँ यथार्थ (सत्य) जानने का प्रसंग हो, वहाँ विपरीत जानना विपर्यय है। जहाँ तत्त्व को जानने-देखने तथा श्रद्धेय त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा करने का प्रश्न हो, वहाँ अनेक प्रकार की शंका-कुशंका करना, संशय है। अथवा शोधकबुद्धि या जिज्ञासाबुद्धि से नहीं, किन्तु अपना पाण्डित्य या चातुर्य बताने के लिए वादविवाद, वितण्डावाद करने हेतु कुशंका उठाना भी संशय है। किसी भी तत्त्व या त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा का दृढ़ न होना, निश्चयात्मक स्थिति का न होना अनध्यवसाय है। इसी प्रकार गतानुगतिकता, अन्धविश्वास, रूढ़ि-प्रियता, लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता आदि सब मूढ़ताएँ भी दर्शनमोहनीय के प्रभाव से पैदा होती हैं। इस प्रकार दर्शनमोह अनेक प्रकार और विविध रूपों में जीवों के जीवन में आता है। २
अन्य दर्शनों ने जिसे 'अविद्या' या 'माया' कहा है, उसे ही जैनदर्शन ने मोह कहा है, मिथ्यात्व कहा है। दर्शनमोहनीय का सीधा-सा अर्ध है - दृष्टिकोण पर मूढ़ता छा जाना। दर्शनमोह के कारण प्राणी में सम्यक् दृष्टिकोण लुप्त-सा हो जाता है। वह मिथ्या धारणाओं और विचारधाराओं का शिकार होता रहता है। उसकी विवेकबुद्धि असंतुलित हो जाती है। इसी दर्शन- मोहनीय कर्म के प्रभाव को व्यक्त करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- “जितने भी अविद्यावान् पुरुष हैं, वे सब अपने लिये दुःख पैदा करते हैं, वे मूढ़ बन कर अनन्त जन्ममरणरूप संसार भटकते रहते हैं।" "विविध प्रकार की भाषाएँ उनका त्राण नहीं कर सकतीं, तब फिर अनेक
१. जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण, पृ. ५८
२. वही, पृ. ५९
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