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उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वभाव और कारण -३ २९७ भौतिक विद्याएँ और शिक्षाएँ कैसे उनकी आत्मा को कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखों से बचा सकती हैं ?१
सम्यग्दर्शन के बदले दर्शनमोहनीय के शिकार
दर्शन - मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव की श्रद्धा अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय मानने लगती है, जैसे यह दृष्ट शरीर मैं हूँ। परपदार्थों में ही रुचि रखता है, जैसेस्त्री-पुत्रादि मेरे हैं, ये धन-धान्यादि मेरी सम्पत्ति हैं, इनके बिना मेरी स्थिति सम्भव नहीं । शरीर, आयु और भोगों में ही मैं और मेरेपन की कल्पना करता है, उनमें ही इष्टानिष्ट बुद्धि रखता है। उनका उपभोग करने में सुख मानता है, उनके वियोग में दुःख । मैं कौन हूँ ? चेतन - आत्मा या जीव का स्वरूप क्या है ? उसका अनुभवगम्य भावात्मक रूप क्या है ? ये और ऐसे तात्त्विक विवेक एवं श्रद्धा से शून्य संसारी जीव अन्तर् में प्रकाशमान परम पवित्र, ज्ञान-दर्शन- सुख-वीर्यात्मक उस आत्मतत्व का वेदन न होने के कारण उन्हीं आत्म बाह्य परपदार्थों में उनकी बुद्धि उलझी रहती है। उन्हीं की प्राप्ति के लिए वे अपना सर्व पुरुषार्थ उड़ेलते हैं। उसके पीछे सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का विवेक भी खो बैठते हैं। २ तत्त्वोपदेश मिलने पर भी उनकी बुद्धि तथा पुरुषार्थ की लगन उधर से हटकर अन्तर्मुखी नहीं होती। वे उन्हीं का महिमागान करते हैं। दर्शनमोह से ग्रस्त वे लोग परमतृप्तिकर अन्तरंग चैतन्य विलास के प्रति नहीं झुकते । भले ही वे मुख से उस उपदेश को सत्य व कल्याणमय कहते रहें। उनकी वह (मिथ्या) श्रद्धा इतनी अटल होती है, कि चौबीस घंटों की अपनी प्रवृत्ति में तनिक भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं। वे सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजा तथा बाह्य तप-जप आदि धार्मिक क्रियाएँ भी करते हैं, परन्तु उसके पीछे उनकी आन्तरिक श्रद्धा, आत्मचिन्तन, आत्मविकास, आत्मस्वरूपरमण, आत्मतत्व पर पूर्ण निष्ठा प्रायः नहीं रहती । आगामी भवों में उन्हीं सुखों की प्राप्ति के लिए इस भव में भी धनादि पदार्थों तथा शारीरिक सुखभोगों की प्राप्ति की ओर प्रायः उनका झुकाव रहता है। कई पण्डित या विद्वान धर्मस्थानों या मन्दिरों में शास्त्र भी पढ़ते हैं, उपदेश भी देते हैं, परन्तु उनका झुकाव प्रायः उन्हीं पूर्वोक्त परपदार्थों की प्राप्ति की ओर या प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि पाने की ओर रहता है।
बहिर्मुखी व्यक्ति दर्शनमोहनीय के प्रभाव में
इस दर्शनमोहनीय का इतना प्रबल प्रभाव है कि कदाचित् किसी के कहने-सुनने से या समझाने से क्षणिक वैराग्य भी आया, भोगों आदि का त्याग भी किया, वनवासी
9. जावंतऽ विज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुपति बहुसो मूढा संसारम्मि अनंतए ॥
२. (क) मद्यपानवद्धेयोपादेय-विवेक-विकलता।
(ख) कर्मसिद्धान्त से भावांशग्रहण, पृ. ६१-६२
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-उत्तराध्ययन सूत्र अ. ६, गा. १ - द्रव्यसंग्रह टीका गा. ३३
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